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वह रात

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                                                 Photo by Matthew Henry on Unsplash जाने कैसा दर्द था फैला, वह जाने कैसी पीड़ा थी, हृदय पे कोई बोझ था या, वह मेरे मन की क्रीड़ा थी, उड़-उड़ आता मीलों यह मन, कुछ पाने की आशा थी, थक-थक वापस आ छुपता, हृदय ही उसकी नीड़ा थी। फिर एक दिवस ऐसा आया, प्रेम भरा हरकारा आया, कितने स्वपनिल शब्दों की वह, मालाएँ गूंथ लिवा लाया, पाँव नही पड़ते धरती पर, वह पुष्पों की थी जैसे शय्या, गगन भरा रंगों से जी भर, जैसे इंद्रधनुष की भूलभूलैया। साँझ संभल न पाती थी जैसे, बस मंद मंद मुस्काती थी, मदिर-मदिर मदिरा भी कुछ, मद मोर हिया बहकाती थी, यादों की निर्मम बदली घिर-घिर, अंधकार फैलाती थी, रात भी जैसे क्रंदन कर-कर तिमिर-तिमिर गहराती थी।   भटके राह पथिक सा बैठा, मैं सुनसान गलियारे में, एक आक्रोश भरा था मन में, छुपा रहा अंधियारे में, प्रणय सुधा खो आया तो अब क्या रक्खा पछतावे में, एक प्रेम का दीपक पा जाऊँ, तो बदलूँ मैं उजियारे में। एक तरफ झरता था पावस, एक तरफ नयनों का जल, जला जला मन ऐसे जल में, जैसे अनल बना हो जल, जग सोता मैं जाग रहा था, गहन हुई पीड़ा पल पल, संवाद करे वह झींगुर क

विषालय

यह विष पूजता संसार है या कोई विषालय...? कितना विद्रूप है यह भौतिकताओं का विश्व, दीवारों में बंद मनुष्यता, आत्मकेंद्रित मनुष्य, वस्तुवादों के रथों में जुते मदांध मानवाश्व, नित गहन होता संकीर्णताओं का विद्यालय। निष्प्राण मूर्तियों पर कितना अथक श्रृंगार, मुखमुद्राओं में झूठे रंगमंच सा जटिल भार, प्रतिपल गिरगिटों से रंग बदलते इश्तहार, नित निर्मम होता वेदनाओं का संग्रहालय। कुटिलताओं का व्याकरण कितना विस्तृत, विषैले भावों के शास्त्रविद नित्य पुरस्कृत, ज़हरीले पर्दों में क्षण-क्षण नग्न मनुष्यता, नित गूढ़ होता यह छलनाओं का शिवालय। शिलाओं के सम्मुख चीखना और सुनना, अपनी ही प्रतिध्वनियों की व्यर्थ उलाहना, विखंडित अस्तित्वों को कठिन है सम्भालना, नित नए पत्थरों की भीड़ सहता क्रीड़ालय। अनुरोधों का तिरस्कार यहाँ कितना सरल, अधिकारों का संसार अति विगलित गरल, मद भर बहते तरल, जीवद्रव्य कितने विरल, नित मैली होती गंगा, नित सँवरते मदिरालय। यह विष पूजता संसार है या कोई विषालय...?