वह रात
Photo by Matthew Henry on Unsplash जाने कैसा दर्द था फैला, वह जाने कैसी पीड़ा थी, हृदय पे कोई बोझ था या, वह मेरे मन की क्रीड़ा थी, उड़-उड़ आता मीलों यह मन, कुछ पाने की आशा थी, थक-थक वापस आ छुपता, हृदय ही उसकी नीड़ा थी। फिर एक दिवस ऐसा आया, प्रेम भरा हरकारा आया, कितने स्वपनिल शब्दों की वह, मालाएँ गूंथ लिवा लाया, पाँव नही पड़ते धरती पर, वह पुष्पों की थी जैसे शय्या, गगन भरा रंगों से जी भर, जैसे इंद्रधनुष की भूलभूलैया। साँझ संभल न पाती थी जैसे, बस मंद मंद मुस्काती थी, मदिर-मदिर मदिरा भी कुछ, मद मोर हिया बहकाती थी, यादों की निर्मम बदली घिर-घिर, अंधकार फैलाती थी, रात भी जैसे क्रंदन कर-कर तिमिर-तिमिर गहराती थी। भटके राह पथिक सा बैठा, मैं सुनसान गलियारे में, एक आक्रोश भरा था मन में, छुपा रहा अंधियारे में, प्रणय सुधा खो आया तो अब क्या रक्खा पछतावे में, एक प्रेम का दीपक पा जाऊँ, तो बदलूँ मैं उजियारे में। एक तरफ झरता था पावस, एक तरफ नयनों का जल, जला जला मन ऐसे जल में, जैसे अनल बना हो जल, जग सोता मैं जाग रहा था, गहन हुई पीड़ा पल पल, संवाद करे वह झींगुर क