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प्रेयसी

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  साँकलें लगाते रहे हम दरवाज़ों पे अपनी आँधियाँ-ए-मुश्किलों को घर में ही छिपा देखा। मुकम्मल कौन है इस जहाँ में मेरे दोस्त तारीख़ के पन्नों पर भी इबारतें-ए-मरम्मत देखा। बेज़ुबान ही सही, सज़दे में झुक जाते हैं लोग पत्थरों को भी गाहे-बगाहे दुआएँ क़ुबूल करते देखा। ख़ुशियों के दाने बिखरे हैं मोती से यहाँ वहाँ जाने क्या-क्या साज़िशें सय्याद को करते देखा। तसव्वुरों की तासीर, उफ़ क्या कहें जनाब! उनकी चेहरे के आगे चाँद को मुँह छुपाते देखा। ———————————————— दृष्टि से ओझल, मन से ओझल, ऐसा कभी कहाँ हो पाता है। उस सर्पिल मेघ-केश को भूलूँ? मन कभी कहाँ भुला पाता है। वह छिपी हुई सी मृदु मुस्कान उस अधर कहाँ रूक पाती है, उस डाल से उड़कर पंक्षी सा इन होंठों पर सज जाती है। प्रिया प्रेयसी प्रेरक प्रतिपल मोहक मधुर मदिर सी चंचल, हौले-हौले मन खींच रहीं तुम हृदय पिघल कर बने तरल। कदम कदम पायल खनकाए  लहर लहर झम सावन ले आए, जलती जेठ दोपहरी की धू में शीतल भीगी एक फुहार ले आए।

शिकायतें

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  ठहरा दिया जमाने ने कातिल मुझको, कोई देखता मुझको नज़र से मेरी भी।” क़त्ल हो जाते हैं लोग एक हँसी पे तेरी, काश कोई देख पाता उदासी मेरी भी। टूटी होंगी ज़रूर ढेरों ख्वाहिशें तेरी भी  काश कोई देखता टूटी उम्मीदें मेरी भी  सारी जायज़ हैं शिकायतें तेरी, माना, एक उलाहने पे कोई गौर करता मेरी भी। तेरे आँखों के आँसू देखे हैं दुनिया ने, काश एक पीड़ा कोई देखता मेरी भी। नग्में नहीं तेरी जिंदगी में कोई, माना, सन्नाटे लफ़्ज़ों की कोई सुनता मेरी भी। कोई शिकवा ना करेंगे अब तुझसे यारा,  पर आंखों की खामोशी तो देख मेरी भी।

पहचान

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  दिल एक दूजे को जान लेते हैं  इश्क़ में, सुना था मगर, सफर ख़त्म होने को आया, पहचान अब भी रह ही गयी। जन्मों जन्मों के रिश्ते होते हैं इश्क़ में, सुना था मगर, हाथों में हाथ लिए चल सकें, ये ख़्वाहिश अब भी रह ही गयी। चेहरे पढ़ने का इल्म होता है इश्क़ में, सुना था मगर, रात गुजरे आँखों आँखों में, ये कसर अब भी रह ही गयी।  जुदाई कभी जज्ब नहीं होती इश्क़ में, सुना था मगर, दूरियाँ कम करते करते, ये ज़िंदगी फिर भी गुज़र गयी। वो कुछ ना कहें, मालूम है इश्क़ में, मज़बूर हैं, मगर, हमने तो पढ़ ही लिया, जो उनके दिल पे गुज़र गयी।

उद्दगार (मुक्तक काव्य)

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               विमूढ़ताओं में विगलित होती जा रही संवेदनाएँ, ठहरो, ठहरो ऐ विश्व! किससे कहूँ ये वेदनाएँ।             कैसी धरा, कैसा धरातल मिल सके यहाँ कोई तल? ऊर्ध्वतल कहो, या अधोतल या फिर कहूँ सुतल भूतल।             चलो ढूँढ़ें कोई सटीक सा संतुलित सा मान्य निग्रह, जो फूंक दे, कर दे पल में शांत-विश्रांत सारे विग्रह।            भावनाएँ कहीं रूकती हैं ही कहाँ किसी दम, उठती हैं बुलबुलों सी, फूटती हैं जैसे कोई बम।             मैं कोई एक नहीं, हूँ कई मानवों का समूह स्वयं में, जाने कितने ही समाए हैं मेरे अंतर्मन के व्योम में।             हाट में बिकता-बेचता सौदा भी मैं, सौदागर भी भीड़ में ले अकेला मन चलता सर्पिल पथों पर भी             क्रेता भी मैं, विक्रेता भी मैं वस्तु भी मैं, द्रव्य भी हूँ मैं प्रत्यक्ष हूँ हाट में बाज़ार में अस्तित्व के हर कण में मैं।             मैं कोई यंत्र तो नहीं, पर हूँ तो मैं स्व-चलित इतना जटिल हूँ, कोई करे भी कैसे परिभाषित।             मूढ़ हूँ! गूढ़ हूँ! हूँ किसी ज्ञान प्रज्ञा से एकदम परे, मेरी नींव विश्वास-रिक्त, भवन किस धरा पर धरें।              कहाँ है मेरा विकल

बस यूँ ही!

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  Photo from personal files आँखें आँखों से मिलती रहीं, दर्द आँसुओं में बहता रहा; ये कैसा रिश्ता बना हमारा, दुनिया से रिश्ता ढहता रहा। आईना मेरी सूरत देखकर, बेखुदी में अज़नबी कह गया; शायद दर्द में मुस्कुराता देख, मासूम बस ठगा सा रह गया। फासलों में ही अब उसका, मिलना बिछड़ना रह गया; अपनी यादों में लपेट वो मुझे, मुहब्बत से दफ़्न कर गया। —————————– तेरे ख़्वाबों के सिलसिले, कुछ यूँ चलते रहे रात भर;  बस आँखें मलते रहे हैं हम, तेरी ख़ुमारी से जागने पर। जाने क्या है तेरे उस ज़ालिम, बेदर्द बदनाम से मुर्दा शहर में; आँखें बरबस नम हो जाती हैं, ना जाने किसके याद आने पर। गर्द-वो-गुबार उड़ते रहे दिन भर, रास्तों पर गुज़रते कारवाओं के; उनकी सूरत भी नज़र आई तो, शाम का सूरज गुज़र जाने पर। जिनके कदम चूमने लेने को, बड़ी बेकरार थी चौखट मेरी; निकलेंगे वो अपनी दालानों से; थकती आँखें के पत्थर होने पर। फुर्सत न मिल सकी जब उन्हें, अपने बीमार से रूबरू होने को; मेरी घावों की टीस ही शायद,   मज़बूर करे उन्हें खींच लाने पर।