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युग्मज

  मृत्यु, तू आगंतुक नहीं भय का जो पदचाप लाए जाने क्या जो माँग बैठे बांध जाने क्या ले जाए जिस घड़ी जन्मा था मैं तुम भी जन्मे साथ में  युग्मज बन पले थे हम उस माँ के पावन गर्भ में  मैं रूप ले आया जगत में  तुम काल की छाया बने हर श्वास का उद्गम था मैं  तुम श्वास की सीमा बने  मैं था दंभी, बना कर्ता वृहत तुम खड़े थे साक्षी से, व्यथित मैं झूठ, तुम सत्य शाश्वत फिर भी चले तुम मित्रवत् तुम नहीं भटके पथिक हो जो खटखटाए द्वार यूँ ही तुम यहीं थे, बस यहीं थे मैं तुमको भूला बस यूँ ही अब समय है थक चला मैं अब साथ देना, हाथ देना इस मेरे अंतिम प्रवास में  बस गोद अपनी खोल देना अब मैं जागृत हूँ जीवित हूँ माया की गठरी छोड़ आया  चल निकलते हैं सफ़र पर मैं हाथ सबको जोड़ आया  मृत्यु, तू आगंतुक नहीं…

अगर

साड़ी को पिंडलियों तक उठा गीली रेत पर चलते हुए तुम्हारे छोड़े पद-चिन्हों में एक कहानी सी पढ़ पाता…अगर बीन लायीं थीं जिन्हें तुम दोपहरी की जलती रेत से उन छोटे-छोटे शंखों में खोये अपने से कुछ लम्हे ढूँढ पाता…अगर लहरों पर कँपकंपाने लगता जब वो साँझ का डूबता सूरज  तुम्हारे चेहरे के सूखे नमक को बस यूँ ही ज़रा सा चख पाता…अगर किसी बच्चे की तरह तुम्हारा  वो झगड़ जाना हर लहर से उनका रूठकर लौटना, फिर आना दूर बैठा मुस्कुराता, देख पाता…अगर निकलकर ईंट-पत्थर के दीवारों से तुम्हारी ख़्वाहिशों से बने उस रेत के घरौंदे में खिलखिलाता उसमें ही कहीं खुद को खो पाता…अगर मेहँदी लगे बालों से झांकते तुम्हारे उस एक सफ़ेद धागे में उलझते-सरकते वक्त को  जी लेने का एहसास कर पाता…अगर हज़ारों पायलों की खनक सी तुम्हारी एक हँसी के लिए कफ़न सी बर्फ़ रातों में दर्द को आँखों की खिड़की पर रोक पाता…अगर झिंसियाते सावन सा मुखरित  हर साँस में बारिश भर कर तुम्हारे धूप से झुलसे चेहरे पर  ज़रा सी देर सही, बरस पाता…अगर पूस की ठंढी सर्द रातों में  जब छत पे बहक जाता चाँद तुम्हारे तपते बदन के अलाव में सिमट कर खुद को सेंक पाता…अगर