युग्मज
मृत्यु, तू आगंतुक नहीं
भय का जो पदचाप लाए
जाने क्या जो माँग बैठे
बांध जाने क्या ले जाए
जिस घड़ी जन्मा था मैं
तुम भी जन्मे साथ में
युग्मज बन पले थे हम
उस माँ के पावन गर्भ में
मैं रूप ले आया जगत में
तुम काल की छाया बने
हर श्वास का उद्गम था मैं
तुम श्वास की सीमा बने
मैं था दंभी, बना कर्ता वृहत
तुम खड़े थे साक्षी से, व्यथित
मैं झूठ, तुम सत्य शाश्वत
फिर भी चले तुम मित्रवत्
तुम नहीं भटके पथिक हो
जो खटखटाए द्वार यूँ ही
तुम यहीं थे, बस यहीं थे
मैं तुमको भूला बस यूँ ही
अब समय है थक चला मैं
अब साथ देना, हाथ देना
इस मेरे अंतिम प्रवास में
बस गोद अपनी खोल देना
अब मैं जागृत हूँ जीवित हूँ
माया की गठरी छोड़ आया
चल निकलते हैं सफ़र पर
मैं हाथ सबको जोड़ आया
मृत्यु, तू आगंतुक नहीं…
Comments
Post a Comment