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Showing posts from July, 2020

अक्सर

अधखुली   आँखों   से   अक्सर , देखने   लगता   हूँ , शून्य   में   एक   उभरती   हुई   आकृति ; जीने   लगता   हूँ , पल   भर   में   एक   लम्बी   सी   ज़िंदगी , सच्चाईयों   से   भागती   सी , और   बिखरने   लगता   हूँ ... । कभी   भीड़   में   अकेला   खड़ा , ढूँढने   लगता   हूँ , हज़ारों   चेहरों   में   एक   चेहरा ; घिर   जाता   हूँ   उन्हीं   परछाइयों   में   फिर , और   खोने   लगता   हूँ ... । कभी   सागर   के   किनारे   खड़ा , छूने   लगता   हूँ , उलझती   लहरों   को   पार   कर , दूर   उस   किनारे   पर   खड़े , अपने   ही   साये   को , और   डूबने   लगता   हूँ ... । फिर   सोचने   लगता   हूँ   अक्सर , कितना   अज़ीब   है   सब   कुछ ; नफ़रतों   की   काइयों   पर , गिरते - संभलते   वज़ूद ; कसाई   सा   वक़्त , और   बोटियों   में   कटती   ज़िंदगी ; गुजरने   लगता   हूँ  , सलीबों   पे   लटकते   अहसासों   से , सुन्न   होते   सँकरे   रिश्तों   के अँधेरे   गलियारों   से ; बंद   कर   लेता   हूँ   फिर , उन   अधखुली   आँखों   को , और   जैसे   ख़त्म   होने   लगता   हूँ ... ।

ये मेरा शहर

जब   से   छूटा   है   मुझसे   ये   मेरा   शहर , बदले - बदले   से   हैं   इसके   शामों - सहर , आशिक़ी   थी   पत्थरों   से   भी   यहाँ   के , भूले - भूले   से   हैं   अब   वो   रास्ते   वो   दर , काश   कोई   टकरा   जाए   अपना   सा , यूँ   ही   अचानक   भीड़   से   निकलकर , कैसे   समझाऊँ   इस   दिल   को   मगर , अब   रहता   नहीं   वो   शख़्स   यहाँ   पर  , जो   कभी   जान   देता   था   मेरे   बग़ैर। वो   सड़कें ,  सर्कस ,  वो   मीना - बाज़ार , वो   बाग़ीचे ,  गलियाँ ,  वो   दरो - दीवार , वो   टूटी   सी   पुलिया ,  वो   क़िस्से   हज़ार , वो   धूँए   के   छल्लों   में   उड़ता   ख़ुमार , वो   आँगन   में   गिरती   सर्दी   की   धूप , वो   गर्मी   की   रातें ,  वो   तपती   सी   लू , वो   बारिश   की   बूँदें ,  वो   मिट्टी   की   बू , वो   बदलते   मौसम ,  वो   गुज़रती   उमर , अजीब   है   ये   मेरे   अहसासों   का   शहर। बचपन   की   नादानियों   से   लेकर , भीगती   मसों   की   दीवानगियों   तक , अनचाही  आवारगियों   से   लेकर , झूठे इश्क़   की   बर्बादियों   तक , रेंगते   वक़्त   के   बहानों   से   लेकर

कशिश

वक्त की तख़्ती पे लिखी कुछ प्यार की रुबाइयाँ, कहीं इश्क़ की थीं आयतें, कहीं प्रेम की चौपाइयाँ। फिर खो गयीं जाने कहाँ सब, यूँ ही यकायक, सब की सब! बस रह गयीं ख़्वाबों की मेरे, कुछ भटकती परछाइयाँ। ख्वाहिशें ढलने लगीं अब, दीवानगी थकने लगी है, नाज़ था जिस दिल पे तुझको, फैली हैं उस झुर्रियाँ। दर्द जो रग-रग में बहता, बन लहू काग़ज़ पे उतरा, पर क्या उकेरूँ अक्स दिल का, जकड़ीं हैं उसको बेड़ियाँ। घिसते कदमों से है काटा, लम्हा-लम्हा रास्तों को, छू ना पाया मंज़िलों को कितनी भी रगड़ूँ एड़ियाँ। पाया नहीं, खो भी दिया, मुट्ठी से सरके रेत जैसे, धुआँ हुईं सारी लकीरें, अंगारों पे हैं हथेलियाँ। थक गयी हैं कोशिशें भी, शाम भी गहराने लगी अब, तू लौ सी इतनी दूर जलती, कैसे पाऊँ गरमियाँ। इश्क़ हमने कब किया...? बस झेंपते डरते रहे हम, कुछ वक़्त से खाये थपेड़े, कुछ तक़दीर ने दी झिड़कियाँ। चुपके से रो लेते हैं अब भी, जो याद आए तेरा शहर, है ये पागल प्रेम तेरा, या वक़्त की बरबादियाँ? छू सकूँ मैं दिल को तेरे, यह कशिश रह ही गयी, कुछ बेवफ़ा सी मेरी सड़कें, कुछ सहमी सी हैं तेरी गलियाँ।

काल का आमंत्रण

काल का आमंत्रण है मुझको, ढो रहा था देह अब तक। विष युक्त था सम्पूर्ण जीवन अस्थि-पंजर, मांस-मज्जा, और हृदय से रक्त तक।   नरपिशाचों की तरह था, जागता मैं रात भर। क्रोध, कुंठा, वेदना में शूल सा चुभता समय था, नर्क था प्रति-पल-प्रहर।   पीड़ा से उपजी थी हताशा, प्रत्यक्ष थी विद्रूप मुख पर। अश्रु बहते थे हृदय से, नेत्र से, किंतु दुर्दिन कब बदलते हैं विवशता देख कर?   ज्यूँ कलेजा मुँह को आए, इस तरह क्रंदन किया मैं। ना डूबते को तिनका मिला और ना ‘परम’ का साथ ही, अवरुद्ध श्वासों से जिया मैं।   क्षण-क्षण जला, पल-पल गला मैं, खोता गया अस्तित्व मेरा। कंकाल होती देह भी, आत्मा भी शेष कुछ स्पंदन ही हैं बस, मर चुका व्यक्तित्व मेरा।   भय तो बस पीड़ा का है, मृत्यु का बिल्कुल नही। युग से कटते कष्ट के पल, बैसाखियों पर टिकता है बल, हाँ! मैं हारता फिर भी नहीं।   मैं ही क्यूँ? यह प्रश्न था, यक्ष सा मुँह बाये खड़ा। खोज उत्तर थक चुका मन, क्षोभ और विस्मय से अब भी है पराजित सा पड़ा।   आस्था खंडित हुई अब, नर में भी, नारायण में भी। राम-हनु या हर-हरि या, या कृष्ण-गीता का ही चिंतन व्यर्थ सुख में, दुःख में भी।   मार्गदर्शक

मित्र का ऋण

                               १ रक्ताभ हो रहा समरांगण, सोलह दिवस गए थे बीत, कितने अद्भुत वीरों से, यह आर्यावर्त हुआ था रीत। धर्म-अधर्म तो विस्मृत थे, विजय ही अंतिम ध्येय बना था, कुरु सेना का सेनानायक आख़िर कर्ण अजेय बना था। बढ़ चला वीर अर्जुन के पीछे, अंतिम द्वन्द की आस लिए, द्वेष के तीर भरे तरकश में, मित्र-विजय प्रण-स्वाँस लिए। धँसा भूमि में रथ का पहिया, कैसा था दुर्भाग्य रथी का, धुरा नहीं ज्यूँ अघ का चक्र हो, शायद न्याय यही धरती का। अधर्म धर्म पर भारी था, विवश हो छल का साथ लिया, क्रोध और करुणा से भरकर, केशव ने आदेश दिया। “गांडीव उठाओ पार्थ! अब तीर चलाओ पार्थ!” “यह कर्ण दंड का भागी है, अब संशय का क्या अर्थ!” आदेश कृष्ण का पाकर भी, दुविधा में था अंतर्मन, तीर चलाए अर्जुन कैसे, थरथर काँपे सारा तन। धँसा धरा में रथ है इसका, छल से वार करूँ कैसे, धनुष नहीं है बाण नहीं है, निःशस्त्र कर्ण को मारूँ कैसे। “किया निरादर पांचाली का, अभिमन्यु का घात किया,” “कवच बना यह दुर्योधन का, दुष्ट पतित का साथ दिया,” “अभी नहीं तो फिर ना होगा, स्व-जीवन को संकट होगा” “यह निर्णय का क्षण है पार्थ, वध इसका फिर सरल