काल का आमंत्रण

काल का आमंत्रण है मुझको,
ढो रहा था देह अब तक।
विष युक्त था सम्पूर्ण जीवन
अस्थि-पंजर, मांस-मज्जा,
और हृदय से रक्त तक।
 

नरपिशाचों की तरह था,
जागता मैं रात भर।
क्रोध, कुंठा, वेदना में
शूल सा चुभता समय था,
नर्क था प्रति-पल-प्रहर।
 

पीड़ा से उपजी थी हताशा,
प्रत्यक्ष थी विद्रूप मुख पर।
अश्रु बहते थे हृदय से, नेत्र से,
किंतु दुर्दिन कब बदलते
हैं विवशता देख कर?
 

ज्यूँ कलेजा मुँह को आए,
इस तरह क्रंदन किया मैं।
ना डूबते को तिनका मिला
और ना ‘परम’ का साथ ही,
अवरुद्ध श्वासों से जिया मैं।
 

क्षण-क्षण जला, पल-पल गला मैं,
खोता गया अस्तित्व मेरा।
कंकाल होती देह भी, आत्मा भी
शेष कुछ स्पंदन ही हैं बस,
मर चुका व्यक्तित्व मेरा।
 

भय तो बस पीड़ा का है,
मृत्यु का बिल्कुल नही।
युग से कटते कष्ट के पल,
बैसाखियों पर टिकता है बल,
हाँ! मैं हारता फिर भी नहीं।
 

मैं ही क्यूँ? यह प्रश्न था,
यक्ष सा मुँह बाये खड़ा।
खोज उत्तर थक चुका मन,
क्षोभ और विस्मय से अब भी
है पराजित सा पड़ा।
 

आस्था खंडित हुई अब,
नर में भी, नारायण में भी।
राम-हनु या हर-हरि या,
या कृष्ण-गीता का ही चिंतन
व्यर्थ सुख में, दुःख में भी।
 

मार्गदर्शक बन सके ना,
एक भी ईश्वर यहाँ पर।
उन निराशा के क्षणों में
कोई साहस दे सका ना,
हैं पाषाण-प्रतिमा सब यहाँ पर।
 

मैं भला अर्जुन कहाँ जो,
कृष्ण पाता सारथी?
जो मिले सब शल्य थे
एक ‘शल्य’ तक पहुँचा सके ना,
अब मैं हूँ दलदल का रथी।

भ्रांति में अमरत्व के,
जीता है मानव इस जगत में।
लिप्त होकर भोग में, आमोद में,
भूलता है सत्य शाश्वत
मृत्यु का आना जगत में।

मुक्ति का संदेश है यह,
हर्ष से स्वीकार मुझको।
वस्त्र बदलूँ आत्मा का,
निर्विकार हो तन से मन से
कर लूँ अंगीकार यम को।

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