प्रेयसी

 



साँकलें लगाते रहे हम दरवाज़ों पे अपनी

आँधियाँ-ए-मुश्किलों को घर में ही छिपा देखा।


मुकम्मल कौन है इस जहाँ में मेरे दोस्त

तारीख़ के पन्नों पर भी इबारतें-ए-मरम्मत देखा।


बेज़ुबान ही सही, सज़दे में झुक जाते हैं लोग

पत्थरों को भी गाहे-बगाहे दुआएँ क़ुबूल करते देखा।


ख़ुशियों के दाने बिखरे हैं मोती से यहाँ वहाँ

जाने क्या-क्या साज़िशें सय्याद को करते देखा।


तसव्वुरों की तासीर, उफ़ क्या कहें जनाब!

उनकी चेहरे के आगे चाँद को मुँह छुपाते देखा।

————————————————

दृष्टि से ओझल, मन से ओझल,

ऐसा कभी कहाँ हो पाता है।

उस सर्पिल मेघ-केश को भूलूँ?

मन कभी कहाँ भुला पाता है।


वह छिपी हुई सी मृदु मुस्कान

उस अधर कहाँ रूक पाती है,

उस डाल से उड़कर पंक्षी सा

इन होंठों पर सज जाती है।


प्रिया प्रेयसी प्रेरक प्रतिपल

मोहक मधुर मदिर सी चंचल,

हौले-हौले मन खींच रहीं तुम

हृदय पिघल कर बने तरल।


कदम कदम पायल खनकाए 

लहर लहर झम सावन ले आए,

जलती जेठ दोपहरी की धू में

शीतल भीगी एक फुहार ले आए।

Comments

Popular posts from this blog

कोई रिश्ता

मराहिल