कोई रिश्ता

 

                                                      Photo by Nathan Dumlao on Unsplash


खौफ़ तो है मर्ज-ए-मौत का लेकिन,

जज़्ब करे मुझे अपनी आग़ोश में तू 

तो हमदर्द सा कोई रिश्ता निकले।



यादों के मोती अश्क बन गिरते हैं,

समेट ले अपने दामन में इन्हें तू 

तो इश्क का कोई रिश्ता निकले।



नन्हे बच्चे सा सहेजा है लम्हों को,

बस फेर जाए सर पर जो हाथ तू 

तो दुआओं का कोई रिश्ता निकले।



टकटकी लगाए देखते हैं तेरी राह, 

बस एक बार जो गुज़र जाए तू 

तो हमसफर सा कोई रिश्ता निकले।



इश्क के खत थे या इबादतें थीं मेरी,

कौन जाने, एक बार जो पढ़ जाए तू

तो बंदे का रब से कोई रिश्ता निकले।



गले लगकर हर बार वो शर्माना तेरा,

बेशर्म सी कोई बात जो कह दे तू

तो ख़ास अपना सा कोई रिश्ता निकले।



प्यास तुझको भी है ख़बर है मुझे,

खुद को भूल जो “मैं” हो जाए तू

तो हमवज़ूदी का कोई रिश्ता निकले।



ये तेरा आना, चले जाना, हद है,

एक बार जो आकर ठहर जाए तू

तो बज़्में-इश्क़ का कोई रिश्ता निकले।



बस निगाहों से बोलने की ज़हमत क्यों,

गर आकर बस मुझसे लिपट जाए तू 

तो खामोशी का कोई रिश्ता निकले।



तेरी आँखों में बसी हैं मेरी आँखें, 

बन के काजल जो रच जाए तू

तो मयकशी का कोई रिश्ता निकले।

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