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Showing posts from October, 2021

मराहिल

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  Photo from personal files तेरा इश्क़ था या एक भली सी कहानी, दास्तानों की क़ब्र में कहीं दफ़्न हो गयी। चाहता था सिसकूँ नहीं, रोऊँ बिलख कर, हिम्मत थी कि मजबूरियों में कहीं खो गयी। सोचकर लेटे थे ना जागेंगे रात रात भर, सलवटों में सारी बेचैनियाँ सिमट गयीं। किसी के नशे में हैं, सोचा था न जाने कोई, चश्मे-डोरों की सुर्ख़ी में खुमारी बयाँ हो गयी। कुछ और ही होती तेरे साथ, ये तो जानते हैं, टुकड़ों टुकड़ों में सही, ज़िंदगी बसर हो गयी। दीवानों सी फ़ितरत हो, ऐसा तो नहीं है पर, बाख़ुदा, सूफ़ियों सी मसरूफ़ियत हो गयी। लिख तो लेते कहीं जिस्म पर भी तेरा नाम, ना मिटती है जो वो सियाही भी दग़ा दे गयी। बचकर निकल गया वो सवालों के हुजूम से, कल अचानक जो ख़ुदा से नज़रें मिल गयीं। बंद कर आँखें ग़र महसूस करते हैं वो हमें तो, क्या कहूँ, वस्ले-यार की हसरत निकल गयी। कोई बात तो थी दिल में मुद्दत से, कह ना सके, मुंतशिर सी ज़िंदगी थी, ज़ेहन से निकल गयी।

क्यूँ?

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  Photo by Emily Morter on Unsplash मौत से पहले मिल सकूँ तुझसे बस यही एक तसव्वुर क्यूँ है? कोई ज़लज़ला क्यों नहीं आता तेरा वो शहर इतनी दूर क्यूँ है? तू बसता है दिल में तू जानता है फिर भी ये बताना ज़रूर क्यूँ है? ख़त्म नहीं होता ये इश्क़-ए-सफ़र मुहब्बत इतनी मजबूर सी क्यूँ है? मेरे रग़-रग़ में है खुदा अक़्स तेरा फिर भी ये रग़ नाकाफ़ी से क्यूँ है? अलहदा नहीं हैं ये जो रूहें अपनी तो दूरियों की लिहाफ़ी सी क्यूँ है? ज़ुदा-ज़ुदा हैं जो ये बदन अपने तो मेरे दर्द की हरारत तुझे क्यूँ है? आँखें जो तू पढ़ नहीं सकता मेरी तो वहाँ अश्क़ों की बरसात क्यूँ है? क्या नाम दूँ इस कशिश को अपनी पाना भी नहीं, खो देने सा क्यूँ है? मसीहा तो था नहीं मैं कोई, तो फिर सलीब पे लटकती सी ज़िंदगी क्यूँ है?

कोई रिश्ता

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                                                        Photo by Nathan Dumlao on Unsplash खौफ़ तो है मर्ज-ए-मौत का लेकिन, जज़्ब करे मुझे अपनी आग़ोश में तू  तो हमदर्द सा कोई रिश्ता निकले। यादों के मोती अश्क बन गिरते हैं, समेट ले अपने दामन में इन्हें तू  तो इश्क का कोई रिश्ता निकले। नन्हे बच्चे सा सहेजा है लम्हों को, बस फेर जाए सर पर जो हाथ तू  तो दुआओं का कोई रिश्ता निकले। टकटकी लगाए देखते हैं तेरी राह,  बस एक बार जो गुज़र जाए तू  तो हमसफर सा कोई रिश्ता निकले। इश्क के खत थे या इबादतें थीं मेरी, कौन जाने, एक बार जो पढ़ जाए तू तो बंदे का रब से कोई रिश्ता निकले। गले लगकर हर बार वो शर्माना तेरा, बेशर्म सी कोई बात जो कह दे तू तो ख़ास अपना सा कोई रिश्ता निकले। प्यास तुझको भी है ख़बर है मुझे, खुद को भूल जो “मैं” हो जाए तू तो हमवज़ूदी का कोई रिश्ता निकले। ये तेरा आना, चले जाना, हद है, एक बार जो आकर ठहर जाए तू तो बज़्में-इश्क़ का कोई रिश्ता निकले। बस निगाहों से बोलने की ज़हमत क्यों, गर आकर बस मुझसे लिपट जाए तू  तो खामोशी का कोई रिश्ता निकले। तेरी आँखों में बसी हैं मेरी आँखें,  बन के काजल जो रच जाए तू