क्यूँ?
मौत से पहले मिल सकूँ तुझसे
बस यही एक तसव्वुर क्यूँ है?
कोई ज़लज़ला क्यों नहीं आता
तेरा वो शहर इतनी दूर क्यूँ है?
तू बसता है दिल में तू जानता है
फिर भी ये बताना ज़रूर क्यूँ है?
ख़त्म नहीं होता ये इश्क़-ए-सफ़र
मुहब्बत इतनी मजबूर सी क्यूँ है?
मेरे रग़-रग़ में है खुदा अक़्स तेरा
फिर भी ये रग़ नाकाफ़ी से क्यूँ है?
अलहदा नहीं हैं ये जो रूहें अपनी
तो दूरियों की लिहाफ़ी सी क्यूँ है?
ज़ुदा-ज़ुदा हैं जो ये बदन अपने
तो मेरे दर्द की हरारत तुझे क्यूँ है?
आँखें जो तू पढ़ नहीं सकता मेरी
तो वहाँ अश्क़ों की बरसात क्यूँ है?
क्या नाम दूँ इस कशिश को अपनी
पाना भी नहीं, खो देने सा क्यूँ है?
मसीहा तो था नहीं मैं कोई, तो फिर
सलीब पे लटकती सी ज़िंदगी क्यूँ है?
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