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Showing posts from August, 2020

डिप्रेशन - एक व्यंग

“अजी सुनते हो तिलकुट के पापा...,” मैं आप लोगों को सच बता रहा हूँ कि ये आवाज़ सुनते ही मैं लगभग डिप्रेशन में चला जाता हूँ। नहीं नहीं, मेरा मतलब है समस्या आवाज़ की नहीं है, आपने गलत समझा, समस्या मूलतः दो वजहों से है। एक तो इनकी अंग्रेजी इतनी फर्राटेदार है कि सुनते ही लगेगा आपको किसी ने झन्नाटेदार थप्पड़ जड़ दिया हो; और दूसरी...आपने अगर ध्यान दिया हो तो देख ही रहे हैं अपने इकलौते बेटे के नाम के साथ इन्होंने क्या तबाही मचा रखी है। लेकिन इसमे भी गलती इनकी नहीं है। ये सबकुछ इनके ज्योतिषी पिता का रचा हुआ कर्मकांड है और, झूठ नहीं बोलूँगा, कुछ बेवकूफी मेरी भी है जिसकी सज़ा तो आप देख ही रहे हैं मैं भुगत रहा हूँ। वास्तव में हुआ कुछ यूँ कि जब इस (अरे भाई मैं) बकरे को हलाल करने का समय आया तो इनके कर्मकांडी बाप ने लड़की डायरेक्ट दिखाने से मना कर दिया और परदे के पीछे से बस इनकी एक झलक दिखा दी और कहा, “बिटिया हमारी सुन्दर है और फर्राटेदार अंग्रेजी बोल सकती है बबुआ, और क्या चाहिए, सुखी रहोगे, हम कुंडली-फुन्डली सब मिला लिए हैं, सारे के सारे ३२ गुण मिलते हैं।” पता नहीं ३२ बोला कि ३६, कुछ याद नहीं, पर बात तो बु

लेखनी

  ऐ   जीवन   की   क्रूर   लेखनी , तू   लिखती   जा   मैं   पढ़ता  जाऊँ , घनीभूत   पीड़ाओं   का   परिचय तू   देती   जा   मैं   सहता   जाऊँ। वैसे   तो   यह   जीवन - सांझ कुछ   जल्दी   उतर   गयी   चौखट   पर , सपने   थे   तो   कुछ   मेरे   भी   अपने पर   जाने   दे !  अब   क्या   तुझे   लजाऊँ ! अब   तो   लौटना   हो   न   सकेगा काल   बहुत   आगे   बढ़   आया , नित   लंबी   होती   परछाईं   से   अब   क्या   बचना   और   क्यों   डर   जाऊँ ? उस   निश्छल   शिशु - मन   से   कहना जितना   खेल   सके   खेले , जीवन   के   निर्मम   द्युतों   की   लंबी   सूची   क्या   उसे   गिनाऊँ ! मातृ - गर्भ   से   गर्भ - धरा   तक कितनी   क्रीड़ा ,  कितना   आंदोलन , आल्हादित   हूँ   या   उद्वेलित   हूँ ? अब   तक   मैं   यह   जान   न   पाऊँ। माँ   के   गर्भ   की   याद   आती   है कैसा   वह   अभेद्य   कवच   था , थी   शय्या   उड़नखटोले   सी   वह वह   निर्बाध   स्पंदन   कहाँ   से   लाऊँ ? मैं  ' अज्ञेय '  का  ' हारिल '  बनकर तिनका   तिनका   किया   बटोरा , कर्म ,  भक्ति   या   सांख्य   कहूँ ,  यह किसका   दंड   है   ज

तुम क्या गयीं...

  तुम क्या गयीं... ज़िंदगी बँटती गई सुरासुरों के बीच मंथन के घटकों की तरह, अमृत तुम साथ ले गईं, विष मैं पिया शिव की तरह। तपिश बढ़ती गयी जाने कितने सूरजों से, रेत फैली, सूखता है मन, शीतल करो इस मरु को मेरे मारिचिकाओं की ओस से। रातें बेचैन हो गयीं बीमार करवटों की तरह, स्वप्न ज्यूँ चंदन हुए, त्यूँ लिपटे हज़ारों सर्प उनसे, नींद अब नाचे नटों की तरह। ज़िंदगी तप सी गयी वृक्षहीन पथ की तरह, श्वेदबिंदु भी अब सूखें कहाँ, थक हार कर बैठा हूँ पथ पर प्यासे बटोही की तरह। जीवन साथ ले गयीं, विरह के छाले मनस पर सज गए तारों के जैसे, ताकता निशि भर मैं अम्बर, अब यूँ ही चकोरों के जैसे। रास्ते चुन ले गयीं थे जो नर्म मख़मल की तरह, मैं चल सकूँगा क्या भला इन पिघलती सड़कों पर बेचारे बंजारों की तरह? परिचय साथ ले गयीं, मैं भटकता बेचैन होकर,  खोए हुए बच्चे के जैसे दुनिया के इस मेले में अब खुद से ही अनजान होकर। ज़िंदगी छलती गयी छदम चोरों की तरह, सूनी बियाबान राहें ही हैं अब, क्या बचाऊँ, क्या गवाऊँ, यह गठरी सुदामा की तरह। तुम क्या गयीं...