लेखनी
ऐ जीवन की क्रूर लेखनी,
तू लिखती जा मैं पढ़ता जाऊँ,
घनीभूत पीड़ाओं का परिचय
तू देती जा मैं सहता जाऊँ।
वैसे तो यह जीवन-सांझ
कुछ जल्दी उतर गयी चौखट पर,
सपने थे तो कुछ मेरे भी अपने
पर जाने दे! अब क्या तुझे लजाऊँ!
अब तो लौटना हो न सकेगा
काल बहुत आगे बढ़ आया,
नित लंबी होती परछाईं से अब
क्या बचना और क्यों डर जाऊँ?
उस निश्छल शिशु-मन से कहना
जितना खेल सके खेले,
जीवन के निर्मम द्युतों की
लंबी सूची क्या उसे गिनाऊँ!
मातृ-गर्भ से गर्भ-धरा तक
कितनी क्रीड़ा, कितना आंदोलन,
आल्हादित हूँ या उद्वेलित हूँ?
अब तक मैं यह जान न पाऊँ।
माँ के गर्भ की याद आती है
कैसा वह अभेद्य कवच था,
थी शय्या उड़नखटोले सी वह
वह निर्बाध स्पंदन कहाँ से लाऊँ?
मैं 'अज्ञेय' का 'हारिल' बनकर
तिनका तिनका किया बटोरा,
कर्म, भक्ति या सांख्य कहूँ, यह
किसका दंड है जान न पाऊँ।
जीवन की अंतिम मधुशाला में
पंच-तत्व के प्याले छलके,
पीड़ा अश्रु, श्वेद या रक्त की गहरी
मैं यह भेद कहाँ कर पाऊँ।
ऐ जीवन की क्रूर लेखनी,
तू लिखती जा मैं पढ़ता जाऊँ...
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