मराहिल

 

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तेरा इश्क़ था या एक भली सी कहानी,

दास्तानों की क़ब्र में कहीं दफ़्न हो गयी।


चाहता था सिसकूँ नहीं, रोऊँ बिलख कर,

हिम्मत थी कि मजबूरियों में कहीं खो गयी।


सोचकर लेटे थे ना जागेंगे रात रात भर,

सलवटों में सारी बेचैनियाँ सिमट गयीं।


किसी के नशे में हैं, सोचा था न जाने कोई,

चश्मे-डोरों की सुर्ख़ी में खुमारी बयाँ हो गयी।


कुछ और ही होती तेरे साथ, ये तो जानते हैं,

टुकड़ों टुकड़ों में सही, ज़िंदगी बसर हो गयी।


दीवानों सी फ़ितरत हो, ऐसा तो नहीं है पर,

बाख़ुदा, सूफ़ियों सी मसरूफ़ियत हो गयी।


लिख तो लेते कहीं जिस्म पर भी तेरा नाम,

ना मिटती है जो वो सियाही भी दग़ा दे गयी।


बचकर निकल गया वो सवालों के हुजूम से,

कल अचानक जो ख़ुदा से नज़रें मिल गयीं।


बंद कर आँखें ग़र महसूस करते हैं वो हमें तो,

क्या कहूँ, वस्ले-यार की हसरत निकल गयी।


कोई बात तो थी दिल में मुद्दत से, कह ना सके,

मुंतशिर सी ज़िंदगी थी, ज़ेहन से निकल गयी।

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