अगर


साड़ी को पिंडलियों तक उठा

गीली रेत पर चलते हुए

तुम्हारे छोड़े पद-चिन्हों में

एक कहानी सी पढ़ पाता…अगर


बीन लायीं थीं जिन्हें तुम

दोपहरी की जलती रेत से

उन छोटे-छोटे शंखों में खोये

अपने से कुछ लम्हे ढूँढ पाता…अगर


लहरों पर कँपकंपाने लगता

जब वो साँझ का डूबता सूरज 

तुम्हारे चेहरे के सूखे नमक को

बस यूँ ही ज़रा सा चख पाता…अगर


किसी बच्चे की तरह तुम्हारा 

वो झगड़ जाना हर लहर से

उनका रूठकर लौटना, फिर आना

दूर बैठा मुस्कुराता, देख पाता…अगर


निकलकर ईंट-पत्थर के दीवारों से

तुम्हारी ख़्वाहिशों से बने उस

रेत के घरौंदे में खिलखिलाता

उसमें ही कहीं खुद को खो पाता…अगर


मेहँदी लगे बालों से झांकते

तुम्हारे उस एक सफ़ेद धागे में

उलझते-सरकते वक्त को 

जी लेने का एहसास कर पाता…अगर


हज़ारों पायलों की खनक सी

तुम्हारी एक हँसी के लिए

कफ़न सी बर्फ़ रातों में दर्द को

आँखों की खिड़की पर रोक पाता…अगर


झिंसियाते सावन सा मुखरित 

हर साँस में बारिश भर कर

तुम्हारे धूप से झुलसे चेहरे पर 

ज़रा सी देर सही, बरस पाता…अगर


पूस की ठंढी सर्द रातों में 

जब छत पे बहक जाता चाँद

तुम्हारे तपते बदन के अलाव में

सिमट कर खुद को सेंक पाता…अगर




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