डिप्रेशन - एक व्यंग


“अजी सुनते हो तिलकुट के पापा...,”


मैं आप लोगों को सच बता रहा हूँ कि ये आवाज़ सुनते ही मैं लगभग डिप्रेशन में चला जाता हूँ। नहीं नहीं, मेरा मतलब है समस्या आवाज़ की नहीं है, आपने गलत समझा, समस्या मूलतः दो वजहों से है। एक तो इनकी अंग्रेजी इतनी फर्राटेदार है कि सुनते ही लगेगा आपको किसी ने झन्नाटेदार थप्पड़ जड़ दिया हो; और दूसरी...आपने अगर ध्यान दिया हो तो देख ही रहे हैं अपने इकलौते बेटे के नाम के साथ इन्होंने क्या तबाही मचा रखी है। लेकिन इसमे भी गलती इनकी नहीं है। ये सबकुछ इनके ज्योतिषी पिता का रचा हुआ कर्मकांड है और, झूठ नहीं बोलूँगा, कुछ बेवकूफी मेरी भी है जिसकी सज़ा तो आप देख ही रहे हैं मैं भुगत रहा हूँ। वास्तव में हुआ कुछ यूँ कि जब इस (अरे भाई मैं) बकरे को हलाल करने का समय आया तो इनके कर्मकांडी बाप ने लड़की डायरेक्ट दिखाने से मना कर दिया और परदे के पीछे से बस इनकी एक झलक दिखा दी और कहा, “बिटिया हमारी सुन्दर है और फर्राटेदार अंग्रेजी बोल सकती है बबुआ, और क्या चाहिए, सुखी रहोगे, हम कुंडली-फुन्डली सब मिला लिए हैं, सारे के सारे ३२ गुण मिलते हैं।” पता नहीं ३२ बोला कि ३६, कुछ याद नहीं, पर बात तो बुढ़ऊ ठीक ही बोल रहा था, लड़की सुन्दर तो थी, हमको आगे कुछ सुनाई ही नहीं दिया, पगला गए न हम! क्या करते, घूम लिए न फेरा।


खैर, जो हुआ सो हुआ। साल भर बीतते-बीतते इनके पिताश्री को फिर मौका मिल गया नया कांड रचने को। हमारा बेटा हुआ तो उसकी जन्म-कुंडली बनाने और नाम-करण करने का अवसर आया। बुढ़ऊ फिर बोले, “बच्चे का नाम त्रिकूट होगा और यह इसी नाम से प्रसिद्ध होकर माँ-बाप का नाम करेगा।”


भाई साहब, सच मानिये इस बार मैं सुन रहा था ध्यान से, वैसे दोबारा उस तरह की गलती की कोई वजह भी नहीं थी इस बार। ये नाम सुनकर मैं लगभग डिप्रेशन में जाते-जाते बचा। वास्तव में मेरा ये डिप्रेशन में जाने वाला सिलसिला शायद यहीं से शुरू हुआ। त्रिकूट! भला ये भी कोई नाम है? मेरा मतलब है कि कभी सुना नहीं किसी का ये नाम! एक ही सेकण्ड में सिर के सारे बाल नोचते-नोचते याद आया कि रावण की लंका बसी थी त्रिकूट पर्वत पर। “यार, कोई ढंग का नाम रख ले मेरे बाप!” मैं मन ही मन अपनी गालियों की लिस्ट खोल चुका था और कुछ तो बुदबुदाकर होंठों से फट ही पड़ना चाह रहे थे कि हमारे बाऊजी बोले, “ठीक है पंडितजी, आप जैसा उचित समझें।” बस, मैं किसी मार खाये लेड़ुआ कुत्ते की तरह अपनी दुम (गालियों की लिस्ट) वापस खींच लिया। 


फिर श्रीमतीजी मायके चली गयीं त्रिकूट को लेकर। वहाँ लाड़-प्यार में बेटे के नाम की ऐसी बैंड बजी कि त्रिकूट से चिरकुट, तिरकुट, और न जाने क्या क्या, फाइनली तिलकुट पर आकर बात रुक ही गयी। आज बेटा २३ साल का है और किसी अमरीकी फर्म में बड़े पोस्ट पर लगा है, लेकिन अभी भी बेचारा रह गया तिलकुट ही।

“...आप कहाँ खोये हो, मैं कब से आवाज़ दे रही हूँ।” मेरी तन्द्रा टूटी और मैं तुरंत घबड़ाकर अपने दड़बे यानी डिप्रेशन से बाहर आ गया। वैसे कई बार मैं पत्नी से पीछा छुड़ाने के लिए भी डिप्रेशन में जाता रहता हूँ, और तो और आप विश्वास नही करेंगे, कई बार तो कामचोरी करनी हो तो भी डिप्रेशन का बहाना सही रहता है।

“हाँ, बोलो।”

“वो अपने शर्माजी की बहू को लड़का हुआ है।”

“तो अच्छी बात है, मिठाई कहाँ है?”

“अरे मिठाई-विठाई छोड़ो, गज़ब हो गया है!”

“क्या मतलब?”

“मतलब ये कि जो लोग देखकर आये हैं वो बता रहे हैं कि बच्चा रोया नहीं पैदा होते ही। बस कुछ डिस-पिस्स जैसी आवाज़ कर टुकुर-टुकुर डॉक्टर और नर्सों को ताकने लगा।”

“अरे छोड़ो भी, होगा कुछ, देखेंगे डॉक्टर लोग, तुम जाओ चाय बनाओ!”

एक बात की मैं दाद देता हूँ बुढ़ऊ की (अरे वही हमारे ज्योतिषीजी की), कि कुंडली बहुत सही मिलाये थे वो हमारी; कुछ भी हो, श्रीमतीजी सुन्दर होते हुए भी हमको मानती बहुत हैं, हमारा ख्याल रखती हैं। चाय बनाते-बनाते उन्होंने फिर बात छेड़ी।

“डॉक्टर लोग कह रहे थे कि बच्चे को शायद ऊ है, क्या कहते हैं…अरे उहे जिसके नाते ऊ धोनी वाला एक्टरवा सुसैट कर लिया…”

बस भाई साहब, यहीं हम मार खा गए! अब आपको समझ में आ ही गया होगा कि हमारा डिप्रेशन बिन बादल बरसात की तरह क्यों अचानक झम्म से हम पर टूट पड़ता है। चौबीस साल से हम इनको अंग्रेजी का एक शब्द भी नहीं सीखा पाए थे। कभी कभी लगता है हम खुद ही सुसैट, मतलब कि सुसाइड कर लें। लेकिन क्या करें, इस एक झूठ के लिए हम ससुरजी को नरक में तो नही ना भेज सकते।

“अरे ठीक-ठीक बोलोगी भी, सुशांत ने तो डिप्रेशन की वजह से सुसाइड किया, ऐसा कहा जा रहा है।”

“हाँ वही, डिप्रेशन, बच्चे को डिप्रेशन है, ऐसा कह रहे थे डॉक्टर लोग।”


सुनकर लगा कि अचानक से मैं पगला जाऊँगा, इस बार सिर के बाल नोचने से काम नहीं चलेगा, जाकर पूरा सिर ही कहीं फोड़ दूँ ऐसा लग रहा था। खैर, कुछ कुछ समझ में आ रहा था, वो बच्चे का न रोना, वो डिस-पिस्स की आवाज़, फिर वो डॉक्टरों को टुकुर-टुकुर ताकना, हे भगवान् मतलब बच्चा खुद बताना चाह रहा है कि वो डिप्रेशन में है! मुझे यकायक लगने लगा कि हम लोग बहुत पीछे रह गए हैं और दुनिया बहुत आगे निकल गयी है। वैसे तिलकुट, मेरा मतलब है त्रिकूट, अक्सर कहता रहता है मुझसे कि पापा थोड़ा स्मार्ट बनो, समय के साथ चलो, पर मुझे हमेशा लगता था कि मैं ठीक-ठाक ही हूँ, अपना सेल फोन चला लेता हूँ, टीवी भी खोल-बंद कर ही लेता हूँ, व्हाट्सएप्प पर मैसेज वग़ैरह खोलना, पढ़ना, फॉरवर्ड करना भी कर लेता हूँ, यार और क्या बच्चे की जान लोगे?


पर नहीं गुरूजी, यहाँ मामला कुछ दूसरा है। हम यहाँ लूडो खेलने में लगे रहे और वहाँ बीमारियाँ और मेडिकल साइंस दोनों आपस में पतंगबाजी करते करते काफी दूर तक यानि कि अमेरिका और योरोप तक पहुंच गए थे और अब वहाँ से इंसान का गला और जेब दोनों काटने लगे थे। याने कि कमाल है यार, डिप्रेशन नहीं हुआ कोरोना वायरस हो गया, घर से निकले नहीं कि धर दबोचेगा! अरे बच्चा है यार, अभी अभी अंडे से बाहर निकला है, थोड़ा साँस तो लेने दो उसको। और मत भूलो कि कोरोना वायरस की अपनी इज्जत भी अभी तक खतरे में ही है, बेचारा ठीक से अभी भी सिद्ध नहीं कर पाया है कि है भी या नहीं। खासकर भारत से तो बेचारा एकदम से खिसिया गया है। हम भारतीयों ने तो उसको एकदम लतखोर बना दिया है, कोई भाव ही नही देता।


भई, हमने कोई रिसर्च-विसर्च तो करी नहीं है इस डिप्रेशन पर, लेकिन ये बाल भी धूप में सफेद नहीं किये हैं। वास्तव में मेरा तो ये मानना है कि जैसे हम दिन में कई बार स्वर्ग और नर्क का दौरा करते रहते हैं वैसे ही हम डिप्रेशन में भी जाते-आते रहते हैं। अब जैसे पड़ोसन दिख गयी, स्वर्ग में हैं; पत्नी टपक पड़ी, नरक में चले गए। वैसे ही, पत्नी ने डाँट दिया, डिप्रेशन में गए; शाम को बोतल दिख गयी, बाहर आ गए; ये सब चलते रहता है। मुझे ही देख लो, आपको इतना सब बताते-बताते मैं जाने कितनी बार डिप्रेशन में गया और बाहर भी आ गया। यार, बंदे में दम होना चाहिए, और क्या।


मेरी पहली मुलाकात डिप्रेशन से तब हुई जब मेरी पहली पोस्टिंग एयर फोर्स अकादमी, हैदराबाद में हुई। विजय बंदा तो बहुत सही था मगर कभी हँसता ही नही था। संयोग से मेरी उससे दोस्ती हो ही गई और अच्छी गाढ़ी हुई। वास्तव में वो शेरो-शायरी वगैरह करता रहता था और उसे मुझ जैसे किसी मुर्गे की तलाश रहती थी जो उसको सुने, इधर मुझे भी थोड़ी बहुत दिलचस्पी रहती थी इन चीजों में हालांकि तब मैं लिखता-विखता नही था। तो एक दिन मैंने उससे पूछ लिया, "यार विजय, तू कभी हँसता क्यों नही, हरदम दुःखी-दुःखी रहता है, कोई बहुत बड़ा दर्द है क्या जो छुपा रहा है?"

उसका ज़वाब सुन कर मैं अवाक रह गया गुरुजी!

“यार पाण्डेय! मुझे ऐसे ही रहना अच्छा लगता है, तू माने या ना माने, खुश रहने में मुझे बिल्कुल मज़ा नही आता है। तू यूँ समझ ले कि ये मेरा नेचर है!”

मैं थोड़ा हिल गया था यह सुनकर, मतलब ऐसा भी होता है क्या? खुश रहने से इतनी नफ़रत, विश्वास नही हुआ।

“तूने कभी किसी डॉक्टर से बात की?”

“हाँ, बोला कुछ डिप्रेशन टाइप की चीज़ है, उसको भी ज़्यादा कुछ समझ में नही आया, कोई इलाज़ नही बताया, बोला खाओ, पियो, मस्त रहो, कसरत वग़ैरह करो। अब यहाँ फ़ौज में अपन यही सब तो करते हैं।”


यहाँ ध्यान देने की बात ये है कि मैं लगभग २८-२९ साल पहले की बात कर रहा हूँ। अब तो कुकरमुत्तों की तरह मनोचिकित्सक हर गली चौराहे पर मिल जाएँगे डिप्रेशन का इलाज़ करते हुए, मगर तब ऐसा नही था। दुःख-सुख तब भी थे, लेकिन बंदा खुद से ही लड़कर बाहर निकल आता था, विजय जैसे लोग या शायद उससे भी बदतर स्थिति के लोग केवल २ से ५ प्रतिशत हुआ करते थे। अब तो डिप्रेशन जैसे मूड ऑफ़ होने का या क्षणिक दुःख का तकियाकलाम बन गया है। कामचोरी का बहाना भी...शायद।


मज़े की बात ये है कि विजय से क़रीब दस साल बाद मैं फिर मिला। उसने अभी साल भर पहले ही शादी की थी और मेरे पड़ोस में रहने आया था; हम बीदार में पोस्टेड थे। मैंने पूछा, “क्या विजय, इतनी लेट मैरिज?”

“यार, तू तो जानता है अपना नेचर, यहाँ खुद खुश रहने का मन नही होता, शादी करो तो बीवी को खुश रखने की ज़िम्मेदारी, इतना हेडेक कौन पाले?”

मैंने उसकी पत्नी से पूछा तो कहने लगी, “भाई साहब, अब तो मैं भी इन्ही के जैसे होती जा रही हूँ, क्या करूँ!” विजय सचमुच बीमार था क्योंकि उसके जैसे लोग ठीक होना नही चाहते, वे अपनी परिस्थितियाँ बिल्कुल बदलना नही चाहते, मगर परिवर्तन तो जीवन है!


सुनिए जी, चलिए हम भी देख आते हैं जच्चा-बच्चा दोनों को, नहीं जायेंगे तो शर्माईन बुरा मान जाएँगी, रास्ते में रूक कर कुछ ले लेंगे बच्चे के लिए।” 


फिर झूठ नहीं बोलूंगा, कौतूहल तो मुझे भी था ये जानने का कि आखिर अभी कल ही पैदा हुआ, इतना ख़तरनाक रूप से डिप्रेस्ड बच्चा दिखता कैसा होगा। शादी-शुदा जीवन के इतने लम्बे इतिहास की वजह से इतना तो मैं समझ ही गया था कि आज यही कोई १०-१५ मिनट अस्पताल में और छः-सात घंटे चिड़ियाघर में, मेरा मतलब है शॉपिंग मॉल में गुजरने वाले थे, जेब की जो ऐसी-तैसी होने वाली थी सो अलग। नहीं समझे! यार मैं आपको बताऊँ, आजकल ये शॉपिंग मॉल वगैरह किसी चिड़ियाघर से कम नहीं हैं। बस, बच्चों और औरतों को ले जा कर वहाँ छोड़ दो, खुद कोई ढंग की जगह देख कर पसर जाओ और देखते रहो उछल-कूद सबकी। कभी सामान इनको मुँह चिढ़ाए, कभी ये सामानों को। मस्त टाइम-पास है पूरे दिन का। याद आया अपना बचपन? एक और राज़ की बात बताता हूँ, इस चिड़ियाघर में डिप्रेशन भी नहीं होता। इसकी दो वजहें हैं, एक तो ये कि ९५% चीज़ें अपने वश के बाहर की होती हैं, तो कोई टेंशन ही नहीं है; दूसरा ये कि फिर ९५% लोग वहाँ अपने जैसे ही आते हैं, विंडो शॉपिंग करने, तो फिर कोई टेंशन नहीं, है ना!


खैर, जैसा मैंने बताया, हम मॉल आ चुके थे, श्रीमतीजी व्यस्त हो गयी थीं अपनी उछल-कूद में और मैं भी पसर चुका था एक ठीक-ठाक सी जगह देखकर। थोड़ी देर तो चिड़ियाघर वाला खेल देखता रहा, मगर दिमाग डिप्रेशन वाली बात से हट ही नहीं रहा था। सोचने लगा, ये डिप्रेशन वाला वायरस हमारे समाज में कुछ इस तरह से फैला दिया गया है कि अगर लोग हल्ला न करते तो सुशांत सिंह राजपूत जैसे ऐक्टर की मौत को भी डिप्रेशन की चादर में ही लपेट कर दफना दिया जाता। बात आयी गई ख़तम हो जाती। इसी तरह मन ही मन तर्क-वितर्क करते करते जब मैं समस्या की तह में जाने की कोशिश करने लगा तो पाया की चोर तो है, इसमें कोई शक नहीं, मगर चोर का हल्ला बहुत ज्यादा है। हमारी बदलती हुई अमरीकी जीवन शैली, अंग्रेजों द्वारा प्रदत्त बाबूगिरी वाली शिक्षा प्रणाली, नौकरियों के बदलते रूप और मापदंड, पारिवारिक विघटन और एकाकीपन, इस तरह के कई कारण तो एकदम प्रत्यक्ष हैं और इनका असर हमारे मन, मस्तिष्क, और शरीर पर पड़ा भी है। कम उम्र में ही मोटापा, हाई ब्लड प्रेशर, और डायबिटीज तो आम बात हो गयी है। लेकिन हमारी नस्लें डरपोक पैदा होने लगी हों, ये मैं नहीं मान सकता। मुझे लगता है उन्हें डरपोक बनाया जा रहा है।


शालू की एक शिक्षक मित्र बता रही थी कि एक पैरेंट ने उसे मेल लिखा था, “मैडम, आपने बच्चे को डांट दिया, वो डिप्रेस्ड फील कर रहा है।”


यार, हम तो लगभग रोज़ ही थुर दिए जाते थे किसी न किसी टीचर के हाथों। ऊपर से आपस के झगड़ों से हाथ पैर रोज़ ही छिले रहते थे, तो घर में अलग कुटाई होती थी, लेकिन अगले दिन क्या, घंटे दो घंटे में हम फिर तैयार। बड़े होकर फ़ौजी और बन गए। आठ साल घर से अलग होम-सिकनेस में जिए, मगर डिप्रेस तो हुए नहीं कभी। काम करते-करते गोली कोहनी छिलती हुई निकल गयी, मगर अगले ही सेकंड मुस्कुराते हुए फिर काम पर। अब तो आलम ये है कि स्कूल में टीचर बच्चे को डाँटना मारना तो क्या करेगी बेचारी, पूरे टाइम अपनी नौकरी बचाने में लगी रहती है। ये आजकल के बच्चे क्या बिना गुर्दे के पैदा होते हैं? पता नहीं, कुछ तो गड़बड़ है। 


इन दिनों “इट्स ओके” वाला कल्चर भी काफी चल रहा है। बच्चा गिर गया, इट्स ओके टू फॉल बेटा। बच्चा डर गया, इट्स ओके बेटा। बच्चा फेल हो गया, इट्स ओके बेटा। बच्चा रो दिया, इट्स ओके टू क्राई बेटा। वो सब तो ठीक है, मगर यार, अगला वाक्य कौन बोलेगा? कौन बोलेगा कि गिर गया तो उठ, खड़ा हो, और फिर भाग, मैं तेरे साथ हूँ। डर गया तो पलट और सामना कर उस डर का और हमेशा के लिए उसे ख़त्म कर दे, मैं तेरे साथ हूँ। रोना आ रहा है, ठीक है, खूब रो, पर चुप होने के बाद उस कारण को जड़ से ख़तम कर दे जिसकी वजह से रोना आया, क्योंकि केवल रोने से तकदीरें नहीं बदलतीं। फेल हो गया तो... बॉस ये थोड़ा ट्रिकी है..., हाँ तो फेल हो गया तो क्या हुआ, अगले साल और मेहनत से पढ़ना, हम सब तेरे साथ हैं। यार, फाइटिंग स्पिरिट भी कोई चीज़ होती है, वो भी तो सिखानी पड़ती है, या बच्चा मुँह लटका कर बैठेगा तो आप भी ये मान के बैठ जाओगे कि वो डिप्रेस्ड है?


आगे मैं आपको एक “मानो या ना मानो मगर सच” जैसी बात बताने जा रहा हूँ। आप कितने अमीर हैं या आपकी प्रॉपर्टी, बैंक बैलेंस, इन सबकी जानकारी कम से कम बारहवीं तक के बच्चे को बिलकुल ना दें। बच्चे इतने स्मार्ट हो गए हैं आजकल कि आपका पूरा यूज़ भी करेंगें और डिप्रेशन के बहाने कामचोरी भी। अक्सर देखा गया है कि अमीरों के बच्चे ज्यादा डिप्रेशन में जाते हैं। यार, गरीबों के पास इन सब चोचलों का अवसर ही नहीं है। अपने को तो पता था कि साला बाप के पास कुछ है नहीं, जो करना है अपने बूते पर करना है, नहीं तो भीख मांगनी पड़ेगी, मतलब ये कि फंडा एकदम क्लियर था, कोई ऑप्शन ही नहीं था ऐयाशी का। 


हमारे एक मित्र हैं। उनका लड़का बारहवीं में था, उसे समझ में आ गया था कि माँ-बाप उसकी पढ़ाई के लिए कुछ भी करेंगे, बस दोस्तों के चक्कर में अच्छी खासी रकम लगवाकर किसी बड़ी कोचिंग में एडमिशन ले लिया। माँ-बाप ने किसी तरह मैनेज किया भी ये सोच कर कि चलो एक बार बच्चा अच्छे नंबर ला लिया तो बेड़ा पार हो जायेगा। इधर एडमिशन के बाद साहबज़ादे पढ़ना-लिखना छोड़ कर मटरगस्ती में लग गए और जब टोके जाते तो मुँह लटका लेते, कहते डिप्रेशन हो रहा है। ये बताने की जरूरत नहीं की उनके रिजल्ट का क्या हुआ और माँ-बाप पर क्या बीती। वैसे आपकी मर्जी है, यदि आप दे सकते हैं तो अवश्य दीजिये बच्चे को खूब बड़ा खेल का मैदान, बेचारा भाग दौड़ कर खुद ही थक जायेगा, हाँ ये है कि खुश रहेगा, मगर ये सब आपकी अमीरी पर निर्भर है।


वैसे मैं बताऊँ, पढ़ाई-वढ़ाई से मेरा विश्वास बिलकुल उठ गया है, एकदम ढकोसला है ये सब। आप जीवन में कितनी तरक्की करेंगे या अय्याशी करेंगे, ये सब आपकी पढ़ाई पर कतई निर्भर नहीं है, ये केवल आपकी तकदीर और आपकी चालाकी पर निर्भर करता है और मजे की बात ये है कि इन दोनों का पढ़ाई से कुछ लेना-देना नहीं है; तो रामचंद्र कह गए सिया से… कौआ मोती खायेगा, समझे ना आप!


सेल की घंटी बजी तो ध्यान आया कि मैं तो चिड़ियाघर में, यानी कि मॉल में बैठा हूँ। श्रीमतीजी का कुछ पता नहीं था। नीलिमा का फ़ोन था, त्रिकूट की दोस्त है, सच पूछो तो मैं खुद ही सोच रहा था इससे बात करने को। ये भी किसी थेरेपिस्ट को देख रही है करीब साल भर से। एक ज़माना था किसी मनोचिकित्सक के पास जाना मतलब बंदा तो गया, पागल हो गया। पर अब भारत बदल रहा है, थोड़े दिनों में पूरी तरह अमरीका हो जायेगा जहाँ आदमी तीसरी बीवी ढूँढ रहा होता है और बीवी चौथा पति ढूँढ रही होती है, एक सेकेंड में प्यार, एक सेकेंड में तलाक़, पति पत्नी हरदम आपस में तलाक के केस में उलझे रहते हैं, पूरा जीवन अपने-अपने सोल्मेट ढूँढने में व्यस्त, और बच्चा १२-१३ साल की उम्र से ही स्वावलम्बी हो जाता है, और करे भी क्या बेचारा! फिर अपराध, ड्रग्स, वगैरह, वगैरह। बच्चे, जवान, बूढ़े सब डिप्रेस्ड, सब ड्रग एडिक्ट, सबके पास अपने अपने साइकेट्रिस्ट, सबके पास नींद की गोलियाँ, लेकिन ठीक है, इट्स ओके। कॉरपोरेट सेक्टर में कम उम्र में ज्यादा पैसा और ज्यादा टेंशन की वजह से डिप्रेशन भी मिलता है, इसलिए किसी थेरेपिस्ट को देखना एकदम सामान्य बात है, बल्कि यूँ कहें कि एक तरह का स्टेटस सिंबल भी है।


नीलिमा का हमारे घर बचपन से ही आना-जाना था, त्रिकूट और वह दोनो स्कूल और कॉलेज में साथ ही पढ़े थे। वह हमारे लिए बेटी की तरह ही थी और हमसे काफी खुलकर किसी भी विषय पर बातचीत करती थी। हालाँकि हमारे परिवारों में कोई विशेष दोस्ती नही थी, बस हाय-हेलो तक, किंतु जितना जान सका था उससे यही कह सकता हूँ कि उसके पिता काफ़ी जद्दोजहद कर उस मक़ाम पर आ पाए थे जहाँ नीलिमा अपने आप को अपर-मिडल या यूँ कहें कि अपर क्लास का ही समझती थी। पिता ने भी अपनी इकलौती बेटी को ग़रीबी के उन सारे अपमान, झुँझलाहट और लज्जित करने वाली परिस्थितियों से दूर रखा जिनसे वे खुद गुज़र कर ऊपर उठे थे। कहने का मतलब ये कि नीलिमा के लिए बड़ा खेल का मैदान, जो चाहे करे। बस, यह बहुत ख़तरनाक स्थिति है, कुछ भी कर सकने की स्वतंत्रता! आप इसको कुछ यूँ समझिए, वो बस जो रोज़ ठसाठस भरी हुई आती हो और आप उसमें रोज़ खड़े होकर सफ़र करते हों, अचानक एक दिन एकदम ख़ाली आ जाए, आप पगला जाएँगे, समझ में नही आएगा कहाँ बैठें, कहो पंद्रह बार सीट बदल लें! (मैं मानता हूँ ऐसा ज़रूरी नही है, ये आपकी समझदारी और मानसिक संतुलन पर निर्भर है।)


कृपया मुझे ग़लत बिल्कुल मत समझिएगा, मैं इस स्वतंत्रता या बड़े खेल के मैदान के क़तई ख़िलाफ़ नहीं हूँ, बल्कि मैं तो ये कहूँगा कि पिछले कुछ सालों में अगर कोई बड़ी क्रांति आई है तो वो यही है कि बच्चे क्या पढ़ना चाहते हैं, क्या बनना चाहते हैं इसकी उन्हें स्वतंत्रता मिले और इसके लिए मैं ख़ासकर आमिर खान को “तारे जमीं पर” और “थ्री इडियटस” जैसी फ़िल्में बनाने के लिए साधुवाद भी दूँगा। लेकिन ये मामला उतना सीधा भी नहीं है जितना आमिर खान ने फिल्मों में दिखा कर लोगों की जेबें खाली की और नाम कमाया। 


एक तो मैं आप लोगों को बताऊँ, मेरा बचपन का अनुभव इतना ख़राब रहा है कि मैं किसी बच्चे से नहीं पूछता, “बेटा बड़े होकर क्या बनोगे?” जब मुझसे कोई ये पूछता था तो मुझे समझ में ही नहीं आता था मैं क्या कहूँ, लगता था कि या तो सामने वाले को थप्पड़ लगा दूँ, या खुद कहीं जाकर डूब मरूँ। कभी-कभी सोचता था बोल दूँ “धर्मेंद्र बनूँगा”, कुछ दिन लगा न्यूज़ रीडर बनना चाहिए, कभी लगा टीवी मैकेनिक बनना चाहिए। गर्मी की छुट्टियों में गाँव गए, वहाँ बाऊजी के पुराने विद्यार्थी उनके चरण छू-छू कर “मास्साब प्रणाम, गुरूजी प्रणाम” कहते हुए झुक जाते थे, तो लगा यार शिक्षक बनना एकदम बेस्ट है। फिर सब कुछ गड्डमड्ड सा लगता था, कुछ साफ़ नहीं था क्या बनूँगा, फिर एक हीन भावना मन में आती थी कि आवारा हो गया हूँ, कुछ नहीं बन पाउँगा।


वास्तव में किसी माई के लाल में कम से कम २०-२२ साल की उम्र तक ये दम नहीं होता कि वो बता पाए कि वो बड़ा होकर क्या बनेगा? यार, बच्चे हज़ारों चीज़ों से प्रभावित होते हैं और तोला-माशा होते रहते हैं; और किसी के माँ-बाप में भी ये दम नहीं होता बता पाने का, ये अलग बात है कि ज़बरदस्ती वो बच्चे को कुछ भी बना लें। सच पूछो तो अगर किसी बच्चे ने जो कहा वही वो बन भी गया तो वो और उसके माँ-बाप पक्के शोध के विषय हैं, मान लीजिये मेरी बात!


अच्छा, जब हम पढ़ते थे तो उस समय गिन-चुन कर १०-१५ ऑप्शंस ही होते थे कुछ बनने के, एक आईएएस/आईपीएस, फिर डॉक्टर/इंजीनियर, फिर टीचर, बाद में बैंक क्लर्क, फौजी, चपरासी/खलासी, बस! विषय भी बस चार ही थे, फिजिक्स, केमिस्ट्री, मैथ्स और बायोलॉजी। बाकी सारे विषय चूतियापे में गिने जाते थे। इतना आसान होने पर भी हम नहीं बता पाते थे कि हम क्या बनेंगे, तो आजकल का बच्चा तो बहुत मुश्किल में है भाई! अब तो पूरा आकाश है पढ़ने के लिए और पूरी पृथ्वी है नौकरी के लिए, मतलब ये कि लाखों ऑप्शंस हैं पढ़ने के भी और नौकरी के भी। एक और बात, जब हम बच्चे थे तब तो ये वाक्य ही नहीं बना था, “बेटी, बड़ी होकर क्या बनोगी?” उन दिनों बेटियाँ तो माँ-बाप के लिए केवल कन्या-दान का पुण्य कमाने और गंगा नहाने


चलिए, आप डिप्रेशन में मत आ जाइएगा ये सब पढ़ कर।  मैं आपको कोई डरा नहीं रहा हूँ मगर ये अवश्य है कि कहीं कोई निगरानी, कोई कंट्रोल, कोई सीमा तो साधनी ही पड़ेगी। नीलिमा के साथ भी कुछ वैसा ही हुआ था जिसका मैंने ऊपर जिक्र किया है। जो विषय अपने मन से लेकर पढ़ा, थोड़े दिनों बाद समझ में आया कि उसमें उसका नेचुरल फ्लेयर (स्वाभाविक झुकाव) नहीं है। फिर विषय बदला, थोड़े दिनों बाद फिर वही समस्या, तब तक काफी समय और पैसे निकल गए थे। असफलता बर्दाश्त नहीं हो पा रही थी, खेल का मैदान भी बड़ा था, थक भी गयी, डिप्रेशन में चली गयी, फिर समय की बर्बादी, स्वास्थ्य की बर्बादी, फिर थेरेपिस्ट, वगैरह, वगैरह। वो तो अच्छा हुआ कि इसी बीच एक जॉब ऑफर आया जिसे न चाहते हुए भी पिता के जोर देने पर उसने ज्वाइन कर लिया। अब चीजें काफी हद तक कंट्रोल में हैं। कुल मिला कर वही गुर्दे वाली समस्या, फाइटिंग स्पिरिट की कमी, पैसों वालों के चोंचले। 


“हेलो बेटा, कैसे हो?” मैंने नीलिमा का फ़ोन उठा लिया। 

“हाय अंकल, मैं अच्छी हूँ, आप कैसे हो, आंटी कैसी है?”


सामान्य औपचारिकता के बाद मैंने उससे उसके थेपिस्ट और ट्रीटमेंट के बारे में पूछ लिया तो बेचारी एकदम से फफककर रो पड़ी। मैं अवाक् रह गया, फ़ोन पर ढाँढस भी कितना बँधाता, मैं उसे घर आकर बात करने को कहकर किसी तरह चुप कराया। वह थोड़ी शांत हुई तो श्रीमतीजी के बारे में पूछने लगी। संयोग से श्रीमतीजी दूर से आती दिखीं तो मैं बढ़कर उन्हें फ़ोन पकड़ा दिया। दोनों बातें करने लगीं, उनकी जमती भी खूब है। मन थोड़ा खिन्न हो गया था, हम उसे बेटी की तरह मानते थे, उसका रोना मुझे बहुत बुरा लगा था, सोच ही रहा था कि क्या वजह हो सकती है तब तक शालू (शालिनी, अरे हमारी श्रीमतीजी!) भी आ गई। उसकी आँखें भी थोड़ी गीली थीं, मैं समझ गया क्या हुआ होगा, शायद नीलिमा फिर रो पड़ी थी, ज्यादा कुछ नहीं पूछा, उसने भी बात नहीं छेड़ी। दोनों ने आँखों ही आँखों में निर्णय किया कि घर जाकर बात करेंगे इस विषय पर। हम दोनों थोड़ी देर वहीं चुपचाप बैठे बच्चों को खेलते देखते रहे। एक बेटी की कमी हमें जिंदगी भर महसूस होती रही थी। टिक्कू (मैं और नीलिमा त्रिकूट को टिक्कू बुलाते हैं) भी जब छोटा था तब कई सालों तक ज़िद करता रहा था कि उसे एक बहन चाहिए।


शाम हो रही थी, अस्पताल में मरीज़ों से मिलने का समय भी हो गया था, मैंने शालू के कंधे पर हाथ रख कर चलने का इशारा किया। हम जैसे ही उठने लगे, टिक्कू का फ़ोन आ गया, पूछने लगा हम लोग कहाँ हैं, उसे आईडिया था कि शाम को हम लोग अस्पताल जाने वाले हैं, शर्माजी का लड़का उसका दोस्त था, साथ चलने की बात कह कर फ़ोन रख दिया। जिस मॉल में हम आये थे वो टिक्कू के ऑफिस के पास ही था, करीब १०-१५ मिनट की दूरी पर। धीरे-धीरे पार्किंग तक पहुँच कर कार निकालते-निकालते वह भी पहुँच गया। 


टिक्कू ऑटो से उतर कर हमारे पास कार में आ कर बैठ गया और हम अस्पताल की और चल पड़े।

“इतना सन्नाटा क्यों है भाई?” टिक्कू मज़ाक़ के मूड में था।

“.....” कहीं से कोई जवाब न पाकर वह थोड़ा बेचैन हुआ।

“क्या बात है, सब ठीक तो है?” अगले एक-दो मिनट में ही उसे अहसास हो गया कि कुछ ठीक नहीं है। 

“पापा, लाइए मैं चलाता हूँ, आप आराम से बैठिये और बताइये क्या हुआ।”

“नहीं, ठीक है, बस अस्पताल आ ही गया है... नीलिमा का फोन आया था… खैर घर चल कर आराम से बात करेंगे, अभी जरा ये काम निपटा लेते हैं।” मैंने उसकी बेचैनी को थोड़ा कम करने के लिए कहा।

“हूँ…समझा, ठीक है, आराम से ही बात करेंगे, मम्मी आप ज्यादा परेशान मत होओ।” माँ को दुखी और चिंतित देख कर शालू के कंधे पर हाथ रख कर वो बोला।


हम अस्पताल से घर आ चुके थे। शर्मा जी की बहू और बच्चा दोनों अच्छे थे। कुछ छोटी-मोटी समस्या थी, डॉक्टरों ने संभाल लिया था और अब सब ठीक था। बताया ना, चोर कम और शोर ज़्यादा होता है अपने यहाँ! करीब आठ बज चुके थे, कोई और दिन होता तो हम खाना बाहर ही खा कर आते, मगर आज किसी का मन नहीं हुआ। घर पहुंचते ही शालू किचन में चली गयी, टिक्कू लैपटॉप पर ऑफिस का कुछ बचा हुआ काम ख़तम करने लगा, और मैं टीवी के रिमोट में उलझ गया था। बस यूँ ही थोड़ी देर चैनल पर चैनल बदलता रहा, मगर मन नहीं लगा तो शालू के पास किचन में चला गया उसकी मदद करने।


इस पुरुष-प्रधान समाज (जो कि दुर्भाग्य से अभी भी ज्यादा नहीं बदल पाया है, और जो भी थोड़ा-बहुत बदल रहा है वह भी बहुत मज़बूरी में, केवल आवरण बदला है, मानसिकता वही है कमोबेश) में अपने आपको कुछ एक्स्ट्रा-मर्द मानने वालों को थोड़ा अज़ीब जरूर लग सकता है, पर शादी के बाद मेरी एयर फ़ोर्स की नौकरी की वजह से जबसे हम पति-पत्नी घर से दूर अलग एक साथ रहने लगे थे, किचन में एक साथ समय बिताने का सुख हमने कभी नहीं गंवाया। पुरुष कितना भी अहंकार कर ले या मज़ाक उड़ा ले, किंतु एक सुघड़ और सुलझी हुई स्त्री कभी भी अपने पति की धोती समाज में ढीली होने या खुलने नहीं देती है, शायद यही उसकी ताकत भी है और कमज़ोरी भी। बिना प्रेम के निभाया गया कर्त्तव्य नीरस है, और बिना कर्त्तव्य का प्रेम बोझिल और अतिभंगुर। अपने इस कर्तव्य और प्रेम के अद्भुत समन्वय के कारण शालू मेरे हृदय में कब बसती चली गयी पता ही नहीं चला था। एक साथ बनाना और एक ही थाली में खाना हमारे अंतरंग क्षणों के सुख की तरह ही था। जब टिक्कू बड़ा होने लगा तो थाली भी दो हो गई, तिलकुट-मम्मी की थाली और टिक्कू-पापा की थाली, साहबज़ादे की जो मर्जी, जिसकी चाहें उसकी थाली से खायें, मगर एक साथ बनाने की आदत कभी नहीं छोड़ी हमने। बाद में तो टिक्कू भी कहने लगा था, “पापा, जाओ न, मम्मी की मदद करो किचन में!”


माँ-बाप में आपस में प्रगाढ़ और अटूट कर्तव्यपूर्ण प्रेम है, इस बात की आश्वस्तता संतान में बहुत विश्वास पैदा करती है, अपने प्रति भी, समाज के प्रति भी, मनुष्यता के प्रति भी, और विवाह जैसी संस्था के प्रति भी। पश्चिमी सभ्यता में इस विश्वास का नितांत अभाव वहाँ के किशोरों और युवाओं में साफ परिलक्षित होता है। यही अविश्वास और असुरक्षा की भावना पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होते रहने के कारण अमेरिका और यूरोप के देशों में समाज का एक बहुत बड़ा तबक़ा डिप्रेशन का शिकार हो रहा है। संतान को जब माँ-बाप के संरक्षण की सबसे ज़्यादा आवश्यकता होती है तब वे उपलब्ध नही होते, वे अपने प्रेम और विवाह के झमेले सुलझाने में लगे रहते हैं। हमें यह समझना पड़ेगा कि जब एक बच्चा पैदा होता है तो साथ ही साथ माँ-बाप भी पैदा होते हैं और बच्चे के साथ बड़े होते हुए ही उसे बड़ा करते हैं। माँ-बाप बच्चे की भाषा समझते सीखते हैं और बच्चा माँ-बाप की। आप सोचिए कि आपका सबसे जिगरी दोस्त आपको तब छोड़ दे जब आपको उसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत हो तो आपको कैसा लगेगा?


आज मुझे एयर फ़ोर्स से रिटायर हुए १५-१६ साल हो रहे हैं और जब से टिक्कू की जॉब लगी है, मेरा स्वास्थ्य ठीक ना रहने की वजह से उसने जिद करके मुझे दोबारा रिटायर कर दिया, कहने लगा, “पापा, बस अब बहुत हो गया, अब आप कुछ नहीं करोगे, बस अपने शौक पूरे करिये।” शालू ने पूछा, “और मेरा क्या?” तो जोर-जोर से हँसते हुए कहने लगा, “मेरी शादी कर दो, आपको भी रिटायर कर दूँगा मम्मी !” सुनकर अच्छा लगा, नहीं तो आज युवाओं का एक बहुत बड़ा वर्ग विवाह और संतानोत्पत्ति जैसी जिम्मेदारियाँ सँभालने से कतराने लगा है, अच्छी नौकरी और जल्दी से जल्दी बड़ा बैंक बैलेंस सर्वोपरि हो गए हैं। लिव-इन के आगे सोचना ही नहीं चाहते। उनके तर्कों में कितनी भी सच्चाई या ताकत हो, किन्तु यह दुःखद है उनके लिए भी और समाज के लिए भी।


खाना टेबल पर लगा कर हमने टिक्कू को आवाज़ दी तो वह लगभग दौड़ता हुआ सा आ पहुँचा।


“मेरे माई-बाप लोगों, अपनी आशिकी के बीच इस गरीब बच्चे का ख्याल भी कर लीजिये, कब से भूखा हूँ, कोई पूछने वाला ही नहीं!”


टिक्कू माहौल को हल्का करने की कोशिश में मज़ाक में बोला। हम मियाँ-बीवी हँस पड़े। भई, बेटा इतना बड़ा हो गया था कि हमारे कान काटा करता था कभी कभी, हमें भी कहीं न कहीं अच्छा ही लगता था उसका मज़ाक करना। 


हम खाने के लिए जैसे ही बैठने को हुए, शालू के सेल की घंटी बज उठी। 


“बरखा है।” शालू ने बताया। हम तीनों के चेहरों पर एक-दो क्षणों के लिए नापसंदगी के भाव उभरे, मगर फिर हमने मुस्कुराते हुए इशारों ही इशारों में बात की, शालू जानती थी क्या करना है, उसने फ़ोन उठा लिया और घर के बाहर बरामदे में चली गयी बात करने।


“मम्मी, मैं अब नहीं रुक सकता, मैं खा लूँ?” टिक्कू ऊँची आवाज़ में शालू को सुनाते हुए और इशारों से ही मेरी भी सहमति मांगते हुए बोला। मैंने भी हँसते हुए इशारों में ही हाँ कह दिया। टिक्कू शुरू हो गया था, मैं इंतज़ार करने लगा।


बरखा शालू की दोस्त थी, दोनों के मायके आस-पास ही थे। यहाँ हैदराबाद में उसके पति रेलवे में ठेकेदार हैं, अर्थात काफी हराम की कमाई; सारे बच्चे डीपीएस में पढ़े, एक लड़का इंजीनियरिंग कर रहा है, एक लड़की डॉक्टरी कर रही है चीन जाकर, अपनी खुद की कोठी है यहाँ; किसी प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती थीं, मगर अब उसे छोड़ कर देवी जी खुद Ph.D. कर रही हैं हिंदी में, उस वेतन से ज्यादा तो स्टाइपेंड पाती हैं अब। नौकरानी है, कुक है, ड्राइवर है, सब है।


ये बरखा उन लोगों में से है जिनको जीवन में सबकुछ मिले होने के बावजूद भी हमेशा लगता है कि उनके पास कुछ भी नहीं है और तक़दीर ने उनके साथ बहुत नाइंसाफी की है। कम से कम यदि वह खुद ऐसा न भी सोचती हो, तो भी दूसरों के सामने तो यही रोना रोती रहती है। आप अगर उससे केवल १० मिनट बात कर लें तो इतना डिप्रेस्ड महसूस करेंगे कि लगेगा सुसाइड कर लें, अब जीवन में कुछ नहीं रखा है।

 

उनकी बात समाप्त हो चुकी थी, शालू वापस आयी। उसने सारी बातचीत रिकॉर्ड कर  ली थी जैसा हम अक्सर करते थे जब भी बरखा का फ़ोन आता था, बस यूँ ही मजे लेने के लिए। मैं आपको उस रिकॉर्डिंग की कुछ झलकियाँ सुनाता हूँ। 


“शालू …हैल्लो, बरखा बोल रही हूँ।”

 “हाँ बरखा, बोल कैसी है तू, सब ठीक तो है, १० बज  रहा है, इतनी देर से फ़ोन कर रही है ?”

“अरे जान द बहिनी, का बताएं, हमरा त जिनगानी चउपट हो गया है!” एकदम रटारटाया पहला वाक्य हमेशा की तरह।

“अरे, क्या हुआ, हमरा समझ से तो सब ठीक ही चल रहा है!” शालू बोली। 

“अरे अब का बोलें, जब से इस्कूल का नौकरिया छोड़े हैं, तब से एक एक पईसा क मोहताज़ हो गए हैं हम, पूरा दिन घर में पड़े सड़ते रहते हैं, इनका उप्पर का आमदनिया भी कम हो गया है न, सोचे थे दू-तीन कमरा बनवा क किराया पर उठा देंगे, त उहो नहीं हो पा रहा है; उ डब्बल वेट वाला मंगल-सुत्तरवो अब कहाँ बन पायेगा? जानती है, कब्बो कब्बो एतना डीपरेस फील करती हैं के लगता है पंखा से लटक जाएँ हम, जाये द कउनो जिनगी है इ?... ” 


आपको कहीं से भी लगेगा नहीं कि ये औरत Ph.D. कर रही होगी और हिंदी साहित्य की सेवा कर रही होगी, और हमारी शालू का तो आप जानते ही हैं वो कितनी पढ़ी-लिखी है, हालाँकि उसकी ये कमी हमारे संबंधों की प्रगाढ़ता में कहीं भी आड़े नहीं आयी।


मेरी समझ में जीवन आरम्भ करने की पहली शर्त ये है कि सबसे पहले आप जीवन में जो भी मिला है उसके लिए खुश होईए और ईश्वर का धन्यवाद कीजिये -- नहीं, संतुष्ट बिलकुल मत होईए, नहीं तो आपकी प्रगति रुक जाएगी -- फिर आगे बढ़िए और वह सब पाने की कोशिश करिए जो आप पाना चाहते है। पर यदि न पा सके दुर्भाग्यवश, तो भी अपनी असफलता पर शर्मिंदा बिल्कुल भी मत होईए।


अपने आप से या जीवन से अत्यधिक अपेक्षा रखने या माँग करने से तो आप जीवन में कभी भी खुश नही रह सकेंगे क्योंकि पाने की तो कोई सीमा ही नही है, जैसे ही कुछ पाया, फिर ख़ाली महसूस करेंगे, फिर कुछ पाने की प्यास। यही असंतुष्टि आपको आसमान तक भी पहुँचा सकती है, और सम्भाल ना सके तो डिप्रेशन में भी डाल सकती है। ऐसे डिप्रेशन का तो कोई इलाज़ भी नही है।शायद यही कारण है कि सनातन हिंदू मनीषियों ने हमेशा से योग, ध्यान, और प्रार्थना से ही स्वास्थ्य को साधने पर ज़ोर दिया है, जिसका अनुकरण अब पश्चिम के देश ही क्या पूरा विश्व करने में लगा है। और सम्भवतः यही कारण है कि समूचे विश्व में जितना शोध कृष्ण की गीता पर हुआ है और हो रहा है, उतना शायद ही किसी और ग्रंथ पर हुआ हो।


मैं और शालू खाना खाने लगे थे, टिक्कू हमारे पास वहीं बैठा रहा। बरखा की बातों पर हम ख़ूब हँस लिए; हमारी बहुत ज़्यादा माँगें नही थीं जीवन से, तो हम डिप्रेस भी नही हुए। टिक्कू को नींद आ रही थी, वो सोने चला गया। शालू भी मॉल में चल-चल कर थक गयी थी और शायद मन से भी थका सा महसूस कर रही थी, सो वो भी लेटने चले गयी। मैं थोड़ी देर वहीं सोफ़े पर बैठा रहा। मैं थका भी नही था तो नींद भी नही आ रही थी। आज की शाम तो बरखा जी खा गयीं। मैं नीलिमा के बारे में सोचने लगा।


सोचते-सोचते वहीं सोफे पर कब नींद लग गयी पता ही नही चला। हमेशा की तरह सुबह 3 बजे आँख खुली तो अपने आप को सोफे पर पाया। शायद शालू और टिक्कू भी अपने-अपने बिस्तरों पर गिरते ही सो गए थे क्योंकि कोई भी मुझे उठाने नहीं आया था। कहते हैं सोने से पहले का अंतिम विचार ही जागने पर आपका पहला विचार होता है। मैं नीलिमा के बारे में सोचते हुए सोया था, इसलिए उठते ही उन्हीं विचारों का क्रम फिर शुरू हो गया। 


नीलिमा को मैंने टिक्कू के साथ शनैः शनैः बड़ा होते देखा था और उन दोनों की प्रकृति और प्रवृत्ति, उनकी पसंद और नापसंद, उनके शौक़ और ज़ुनून, हर चीज़ से अच्छी तरह वाक़िफ़ था। नीलिमा ने जीवन में कभी असफलता का मुंह नही देखा। चाहे वह पढ़ाई हो, स्कूल का स्टेज हो, चित्रकला हो या संगीत, हर जगह उसे छाए रहने की आदत सी हो गई थी। शिक्षकों ने भी उसे हमेशा प्रोत्साहित किया।। नीलिमा के माता-पिता ने भी हमेशा उसका साथ दिया। उन्होंने कभी भी  नीलिमा पर किसी भी चीज के लिए जोर ज़बरदस्ती नहीं की, न ही पढ़ाई के लिए और न ही कुछ विशेष बनने के लिए। नीलिमा अपने स्वाभाविक रूप से बढ़ती रही और शायद असफल न होने को ही और एक साथ बहुत सी चीज़ें कर सकने को ही उसने अपना स्वाभाविक रूप मान लिया था, इसीलिए जब असफलताओं ने घेरना शुरू किया तो वह परेशान हो गई थी। 


टिक्कू और शालू उठ चुके थे, मैंने घड़ी देखी, साढ़े छः बज चुके थे। शालू चाय लेकर आ गयी और हम साथ चाय पीने लगे। सुबह का समय बहुत तेजी से भागता है, देखते-देखते नौ बज गए थे।  टिक्कू दस बजे तक निकलता है ऑफिस के लिए। तभी दरवाज़े की घंटी बजी, देखा तो नीलिमा खड़ी थी दरवाज़े पर। मैंने उसे बड़े प्यार से अंदर बुलाया और टिक्कू और शालू को आवाज़ दी।

“नाश्ता किया बेटी तूने?” शालू ने पूछा। 

“नहीं आंटी।” नीलिमा ने ज़वाब दिया।

“ठीक है, चलो सब साथ ही नाश्ता करते हैं, आप टिक्कू को बुलाइये जी।”

नाश्ता करते करते मैंने नीलिमा से कल उसके  रोने का कारण पूछा। वैसे मैंने एक बात ग़ौर की थी कि जबसे नीलिमा डिप्रेशन में गई थी और उसका इलाज चल रहा था, वह बहुत छोटी-छोटी बातों पर भी रोने लगती थी।


“अंकल, मेरी थेरेपिस्ट तीन-चार महीनों के लिए छुट्टियों में अपने पति के पास ऑस्ट्रेलिया जा रही है और प्रैक्टिस भी नहीं करेगी, अब मैं क्या करूँगी?”

“हूँ…, वैसे आपकी थेरेपिस्ट आपका इलाज़ करती कैसे है, कुछ दवाइयाँ देती है क्या?” मैंने जिज्ञासा वश पूछा।  

“नही अंकल, दवाइयाँ तो वो दे रही थी मगर मैंने ही नहीं चालू की ये सोच कर कि कहीं उनकी आदत न पड़ जाये; वैसे वो बहुत जोर दे रही थी कि कम डोज़ की हैं, आदत नहीं पड़ सकती, फिर भी मैंने नही चालू की।” उसने बताया। 

“तो फिर कैसे ट्रीट करती है?” मैंने जानना चाहा, यूँ तो जानता तो था मैं थोड़ा बहुत।

“अंकल, हर हफ्ते मेरा उसके साथ एक घंटे का सेशन रहता है, मैं बोलती हूँ मुझे जैसा भी महसूस होता है और वो सुनती रहती है धैर्य के साथ। अंत में कुछ-कुछ सलाह भी देती है। अब उसके न रहने से कौन मुझे सुनेगा, अब मेरे इलाज़ का क्या होगा। अगर मैं किसी दूसरे थेरेपिस्ट के पास जाऊँगी तो उसे शुरू से सब कुछ बताना पड़ेगा, और फिर यह थेरेपिस्ट अच्छी थी, मित्रतापूर्ण और सहज भी।”

“वैसे उसने आपको पूरा सुनने के बाद आपकी समस्या क्या बतायी बेटा?”

“अंकल, उसका कहना है कि मेरे माँ-बाप और शिक्षकों को मुझे हर चीज़ में आगे रहने से रोकना चाहिए था। मुझे एक साधारण छात्र बन कर रहना चाहिए था, अब असफलता मेरे लिए मुसीबत बन गयी है।”


मुझे एक बार फिर लगा कि मैं पागल हो जाऊँगा। मतलब इस दुनिया में कौन माता-पिता या शिक्षक होंगे जो स्वाभाविक रूप से एक आगे बढ़ते बच्चे की टाँग पकड़ कर पीछे खींचेंगे ये सोचकर कि कहीं इसकी सफलता आगे चलकर इसके लिए बोझ न बन जाए। हद है यार! ख़ैर, मैंने इस थेरेपिस्ट की और करतूतें आगे जानने के लिए पूछा।

“वैसे बेटा, वो सलाह क्या क्या देती है?”

“वही अंकल, कि…,” और नीलिमा बोलती चली गयी थी। उसने बहुत सी बातें बतायी जो उसकी थेरेपिस्ट उसे बताती रहती थी; मैंने भी कुछ सुनी और कुछ को अनसुनी करता गया। जैसा मैंने पहले ही बताया डिप्रेशन पढ़े-लिखे परिवारों का सिरदर्द है, माँ-बाप, परिवार और मित्र यदि रोगी का साथ दें, उसे समझने का प्रयत्न करें, और उससे किसी तरह के चमत्कार की उम्मीद न करते हुए उस पर किसी भी चीज़ के लिए किसी भी तरह का दबाव ने डालें, तो काफ़ी हद तक इस समस्या से बाहर निकला जा सकता है। एक बात तो तय है कि थेरेपिस्ट कितना भी सलाह क्यों न दे ले, इलाज़ के लिए सही वातावरण तो परिवार ही दे पाएगा, “यदि” समझ पाए और दे पाए तो! हमें समझना होगा कि थेरेपिस्ट का काम यहाँ बहुत सीमित है, इसलिए उसपर निर्भर भी रहने की बहुत ज़्यादा आवश्यकता नहीं है; और उसके सलाह भी बहुत ही सामान्य सूझ-बूझ के ही होते हैं। थेरेपिस्ट ऐसा कुछ भी नहीं बताते जो आमतौर पर हम नहीं जानते हों। थेरेपिस्ट की सबसे बड़ी ताक़त है रोगी को धैर्यपूर्वक सुनना और उसकी हाँ में हाँ मिलाना। इससे रोगी के अहम की पुष्टि होती है और उसे लगता है की दुनिया में कोई तो है जो उसे समझता है।किंतु यह काम तो परिवार ज़्यादा आसानी से कर सकता है, और तकलीफ़ की जड़ में जाकर उसे ख़त्म भी कर सकता है, फिर समस्या 

कहाँ है?


समस्या ये है कि परिवार को इस बात का एहसास ही नही होता की रोगी के साथ समस्या है। यह समझना बहुत ज़रूरी है की हर इंसान जीवन का आनन्द उठाना चाहता है, यह मनुष्य की मूलभूत प्रवृत्ति है, किंतु अगर वह ऐसा नहीं कर पा रहा है तो अवश्य ही कोई बात होगी जिस पर ध्यान देना ज़रूरी है। आज नीलिमा थेरेपिस्ट पर इतना ज़्यादा आश्रित हो गयी है कि उसके न होने की कल्पना मात्र से वह घबरा गयी है। इस स्थिति के ज़िम्मेदार कहीं न कहीं माँ-बाप, मित्र एवं परिवार भी है जिन्होंने उसे पूरी तरह से थेरेपिस्ट के भरोसे छोड़ दिया। यह उचित नही। परिवार का यह कर्तव्य है कि वो रोगी को धीरे-धीरे थेरेपिस्ट से दूर करे, स्वयं थेरेपिस्ट का काम करे और रोगी का विश्वास जीतने का प्रयत्न करे।


अंत में, मैं एक बार फिर इस बात पर ज़ोर दूँगा कि जब तक हम दोबारा प्रकृति से नही जुड़ेंगे; ध्यान, योग, एवं व्यायाम की ओर नही मुड़ेंगे; और पाश्चात्य सभ्यता से मुँह नही मोड़ेंगे, तब तक यह ज़बरदस्ती का थोपा हुआ डिप्रेशन हमें डिप्रेस करता ही रहेगा। आज सोशल मीडिया और कोरपोरेट वर्ल्ड, इन दोनो से बड़ा ज़हर कोई नही जो पूरे विश्व को लील रहा है। किंतु आज के समय में इनसे बचना मुश्किल है, ऐसे में केवल इनका विवेकपूर्ण उपयोग ही हमें बचा पाएगा। हाँ, डिप्रेशन के कुछ मामले अवश्य ही गम्भीर होते हैं, जो दुनिया के किसी भी देश, समाज, या परिवार में हो सकते है, और उनका उचित इलाज अवश्य अपेक्षित है।


                                              समाप्त


































  

      



                                                                                           



  




   


 







  




   


 






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