तुम क्या गयीं...
तुम क्या गयीं...
ज़िंदगी बँटती गई
सुरासुरों के बीच
मंथन के घटकों की तरह,
अमृत तुम साथ ले गईं,
विष मैं पिया शिव की तरह।
तपिश बढ़ती गयी
जाने कितने सूरजों से,
रेत फैली, सूखता है मन,
शीतल करो इस मरु को मेरे
मारिचिकाओं की ओस से।
रातें बेचैन हो गयीं
बीमार करवटों की तरह,
स्वप्न ज्यूँ चंदन हुए, त्यूँ
लिपटे हज़ारों सर्प उनसे,
नींद अब नाचे नटों की तरह।
ज़िंदगी तप सी गयी
वृक्षहीन पथ की तरह,
श्वेदबिंदु भी अब सूखें कहाँ,
थक हार कर बैठा हूँ पथ पर
प्यासे बटोही की तरह।
जीवन साथ ले गयीं,
विरह के छाले मनस पर
सज गए तारों के जैसे,
ताकता निशि भर मैं अम्बर,
अब यूँ ही चकोरों के जैसे।
रास्ते चुन ले गयीं
थे जो नर्म मख़मल की तरह,
मैं चल सकूँगा क्या भला
इन पिघलती सड़कों पर
बेचारे बंजारों की तरह?
परिचय साथ ले गयीं,
मैं भटकता बेचैन होकर,
खोए हुए बच्चे के जैसे
दुनिया के इस मेले में अब
खुद से ही अनजान होकर।
ज़िंदगी छलती गयी
छदम चोरों की तरह,
सूनी बियाबान राहें ही हैं अब,
क्या बचाऊँ, क्या गवाऊँ,
यह गठरी सुदामा की तरह।
तुम क्या गयीं...
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