अक्सर

अधखुली आँखों से अक्सर,

देखने लगता हूँ,

शून्य में एक उभरती हुई आकृति;

जीने लगता हूँ,

पल भर में एक लम्बी सी ज़िंदगी,

सच्चाईयों से भागती सी,

और बिखरने लगता हूँ...

कभी भीड़ में अकेला खड़ा,

ढूँढने लगता हूँ,

हज़ारों चेहरों में एक चेहरा;

घिर जाता हूँ उन्हीं परछाइयों में फिर,

और खोने लगता हूँ...

कभी सागर के किनारे खड़ा,

छूने लगता हूँ,

उलझती लहरों को पार कर,

दूर उस किनारे पर खड़े,

अपने ही साये को,

और डूबने लगता हूँ...

फिर सोचने लगता हूँ अक्सर,

कितना अज़ीब है सब कुछ;

नफ़रतों की काइयों पर,

गिरते-संभलते वज़ूद;

कसाई सा वक़्त,

और बोटियों में कटती ज़िंदगी;

गुजरने लगता हूँ ,

सलीबों पे लटकते अहसासों से,

सुन्न होते सँकरे रिश्तों के

अँधेरे गलियारों से;

बंद कर लेता हूँ फिर,

उन अधखुली आँखों को,

और जैसे ख़त्म होने लगता हूँ...

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