कशिश
वक्त की तख़्ती पे लिखी
कुछ प्यार की रुबाइयाँ,
कहीं इश्क़ की थीं आयतें,
कहीं प्रेम की चौपाइयाँ।
फिर खो गयीं जाने कहाँ सब,
यूँ ही यकायक, सब की सब!
बस रह गयीं ख़्वाबों की मेरे,
कुछ भटकती परछाइयाँ।
ख्वाहिशें ढलने लगीं अब,
दीवानगी थकने लगी है,
नाज़ था जिस दिल पे तुझको,
फैली हैं उस झुर्रियाँ।
दर्द जो रग-रग में बहता,
बन लहू काग़ज़ पे उतरा,
पर क्या उकेरूँ अक्स दिल का,
जकड़ीं हैं उसको बेड़ियाँ।
घिसते कदमों से है काटा,
लम्हा-लम्हा रास्तों को,
छू ना पाया मंज़िलों को
कितनी भी रगड़ूँ एड़ियाँ।
पाया नहीं, खो भी दिया,
मुट्ठी से सरके रेत जैसे,
धुआँ हुईं सारी लकीरें,
अंगारों पे हैं हथेलियाँ।
थक गयी हैं कोशिशें भी,
शाम भी गहराने लगी अब,
तू लौ सी इतनी दूर जलती,
कैसे पाऊँ गरमियाँ।
इश्क़ हमने कब किया...?
बस झेंपते डरते रहे हम,
कुछ वक़्त से खाये थपेड़े,
कुछ तक़दीर ने दी झिड़कियाँ।
चुपके से रो लेते हैं अब भी,
जो याद आए तेरा शहर,
है ये पागल प्रेम तेरा,
या वक़्त की बरबादियाँ?
छू सकूँ मैं दिल को तेरे,
यह कशिश रह ही गयी,
कुछ बेवफ़ा सी मेरी सड़कें,
कुछ सहमी सी हैं तेरी गलियाँ।
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