मित्र का ऋण

                               १

रक्ताभ हो रहा समरांगण, सोलह दिवस गए थे बीत,
कितने अद्भुत वीरों से, यह आर्यावर्त हुआ था रीत।
धर्म-अधर्म तो विस्मृत थे, विजय ही अंतिम ध्येय बना था,
कुरु सेना का सेनानायक आख़िर कर्ण अजेय बना था।
बढ़ चला वीर अर्जुन के पीछे, अंतिम द्वन्द की आस लिए,
द्वेष के तीर भरे तरकश में, मित्र-विजय प्रण-स्वाँस लिए।
धँसा भूमि में रथ का पहिया, कैसा था दुर्भाग्य रथी का,
धुरा नहीं ज्यूँ अघ का चक्र हो, शायद न्याय यही धरती का।
अधर्म धर्म पर भारी था, विवश हो छल का साथ लिया,
क्रोध और करुणा से भरकर, केशव ने आदेश दिया।
“गांडीव उठाओ पार्थ! अब तीर चलाओ पार्थ!”
“यह कर्ण दंड का भागी है, अब संशय का क्या अर्थ!”
आदेश कृष्ण का पाकर भी, दुविधा में था अंतर्मन,
तीर चलाए अर्जुन कैसे, थरथर काँपे सारा तन।
धँसा धरा में रथ है इसका, छल से वार करूँ कैसे,
धनुष नहीं है बाण नहीं है, निःशस्त्र कर्ण को मारूँ कैसे।
“किया निरादर पांचाली का, अभिमन्यु का घात किया,”
“कवच बना यह दुर्योधन का, दुष्ट पतित का साथ दिया,”
“अभी नहीं तो फिर ना होगा, स्व-जीवन को संकट होगा”
“यह निर्णय का क्षण है पार्थ, वध इसका फिर सरल ना होगा।”
गांडीव उठा फिर, तीर चला एक, बेधा वीर की छाती को,
हुआ धराशायी वह जड़ हो, करता आलिंगन धरती को।
निःशब्द खड़ा अर्जुन रथ पर, रोता कृष्ण का अंतर्मन,
सूर्य शौर्य का अस्ताचल को चला तोड़ जीवन बन्धन।

                                 २

माना  विवश किशोरी माँ ने, किया तिरोहित गंगाजल में,
क्या त्याग सकी होगी वह तुमको, वात्सल्य भरे अंतर्मन से?
कैसा था अपराध बोध वह, माता लज्जित होती थी,
कैसा निर्मम क्षण था वह जो पुत्र से वंचित होती थी।
सारे जीवन का आशीष, किया न्योछावर होगा हार,
अश्रु झरे होंगे नैनों से और क्षीर स्तन से बारम्बार।
नहीं स्वीकारा जननी को, कैसे हृदयविहीन थे तुम,
छलपूर्ण मित्रता को धन माना, कैसे दुर्बल दीन थे तुम।
जाने कितने सूतपुत्र थे, तुम एकाकी नहीं थे कर्ण,
इस समाज के अन्यायों से, उनके मन भी थे विदीर्ण।
पीड़ा थी, सामर्थ्य भी था, करते तुम उनका चिंतन!
जो अधिकारों से वंचित थे, कर लेते उनका आलिंगन!
पीड़ित, विवश, पराजित पर कुछ उपकार किया होता,
सारे पाप क्षमा होते यदि उनका उद्धार किया होता।
सब अपमानों से भारी था, निश्चय ‘सूतपुत्र’ सम्बोधन,
पर बेच के अपना तन मन तुम, बन गए दूसरा दुर्योधन।
अंग-देश की भिक्षा तुमने, अकुलाकर स्वीकार किया,
मान मिला? सम्मान मिला? क्या एक क्षण कभी विचार किया?
निभा रहे थे मित्र-धर्म या था केवल ऋण का अनुबंध?
ले पाए क्या कभी भूलकर निर्मल प्राण-वायु स्वच्छंद?
हे दानवीर सब पुण्य तुम्हारे, क्षीण हुए कुरु-छाया में,
ह्रास हुआ सत्कर्मों का, घिर दुर्योधन की माया में।
पांचाली को वेश्या कह डाला, अर्जुन वध का हठ पाला,
बने सहायक कुरुओं के तुम, जीवन व्यर्थ गँवा डाला।
दुश्कृत्यों की श्रेणी में, अगिनत पाप सजाए तुमने,
साहस बन दुर्योधन का, अन्याय के शंख बजाए तुमने।
वध किया अनुज पुत्रों का तुमने, कैसा घोर कुकर्म था वह,
स्वधर्म किया विस्मृत तुमने, दास-धर्म का चरम था वह।

                                 ३

कैसे कहूँ व्यथा मन की, एक आर्तनाद सा गुंजित है,
लहू तुम्हारा बहता है, मन मेरा रक्त से रंजित है।
तुम रश्मिरथी थे, सूर्यपुत्र थे, तुम जैसा प्रताप नहीं।
कैसे कहूँ मैं वध का तुम्हारे, है मुझको संताप नहीं।
धर्ममूर्ति थे, ज्ञानमूर्ति थे, अद्वितीय थे तुम दानवीर,
परशुराम के शिष्य पुत्रवत, अतिशय धीर और गम्भीर।
कौन धरा पर था ऐसा जो विजय धनुष टंकार सहे,
कौन समर में था ऐसा जो तुमसा तीक्ष्ण प्रहार करे।
 व्यर्थ गँवाया तुमने जीवन अभिशापों को गिनने में,
वरदानों का किया निरादर, गिरे दुष्ट के चरणों में।
कुरुक्षेत्र के धर्मयुद्ध में, यह तो होना उचित ही था,
भीष्म, द्रोण और कर्ण तुम्हारा, वध होना निश्चित ही था।
पक्ष तुम्हारा दुर्योधन का, अवगुण और अधर्मों का,
तुम्हीं बने थे बल उसका, और उसके दुष्कर्मों का।
लालच, द्वेष, घृणा को उसके यदि बाधित कर पाते,
अर्थहीन जीवन को सम्भवतः परिभाषित कर पाते।
कौन श्रेष्ठ था तुम या पार्थ, यह तो बस ईश्वर ही जाने,
धर्म उचित या द्वन्द्व उचित था, कर्ण तुम्हारा हृदय ही जाने।
जहाँ कृष्ण थे वहीं धर्म था, यह तो सर्वविदित ही था,
फिर भी केशव को ठुकराया, यह भी तो अनुचित ही था।
लोट रहे कुरु चरणों में, बस लक्ष्य रहा निज का पोषण, 
सत्ता का क्या लाभ मिला, क्या रोक सके लघु का शोषण?
धर्म गया, परिवार गया, रथ गया रसातल में जैसे,
विद्या भूले, साहस भूले, नरसिंह बना मृग-शावक जैसे।
धूसरित धूल में देह पड़ी है, मस्तक कट कर दूर पड़ा है,
युद्धभूमि में कर्ण तुम्हारा, निष्फल जीवन सार पड़ा है।
जो युद्ध तुम्हारा था ही नहीं, अनायास अपनाया तुमने,
‘कथित’ मित्र के हठधर्मी का, दुष्फल ही पाया तुमने।
 तुम जैसे वीर का ऐसा अंत, मुझसे सहा नहीं जाता,
पीड़ा का यह मर्म है ऐसा जो मुझसे कहा नहीं जाता।
सूर्य चले अस्ताचल को, यह प्रवास अब अंतिम है,
जनमानस के मन पर कर्ण, शौर्य तुम्हारा अंकित है। 
कुरुक्षेत्र की रणभूमि यह, तुमको भूल न पाएगी,
युगों युगों तक धरती ऐसा अद्भुत वीर न पाएगी।
आलोचक मैं नहीं तुम्हारा, अर्पित श्रद्धा सुमन तुम्हें,
शोक, वेदना और व्यथा से गर्भित है यह नमन तुम्हें।

Comments

  1. Very different description of Karan....Sir... इतनी बारीकी से आपने कर्ण के जीवन को विभिन्न दृष्टिकोण से व्यक्त किया है, यह सराहनीय है

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

कोई रिश्ता

प्रेयसी

मराहिल