बस यूँ ही!
आँखें आँखों से मिलती रहीं,
दर्द आँसुओं में बहता रहा;
ये कैसा रिश्ता बना हमारा,
दुनिया से रिश्ता ढहता रहा।
आईना मेरी सूरत देखकर,
बेखुदी में अज़नबी कह गया;
शायद दर्द में मुस्कुराता देख,
मासूम बस ठगा सा रह गया।
फासलों में ही अब उसका,
मिलना बिछड़ना रह गया;
अपनी यादों में लपेट वो मुझे,
मुहब्बत से दफ़्न कर गया।
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तेरे ख़्वाबों के सिलसिले,
कुछ यूँ चलते रहे रात भर;
बस आँखें मलते रहे हैं हम,
तेरी ख़ुमारी से जागने पर।
जाने क्या है तेरे उस ज़ालिम,
बेदर्द बदनाम से मुर्दा शहर में;
आँखें बरबस नम हो जाती हैं,
ना जाने किसके याद आने पर।
गर्द-वो-गुबार उड़ते रहे दिन भर,
रास्तों पर गुज़रते कारवाओं के;
उनकी सूरत भी नज़र आई तो,
शाम का सूरज गुज़र जाने पर।
जिनके कदम चूमने लेने को,
बड़ी बेकरार थी चौखट मेरी;
निकलेंगे वो अपनी दालानों से;
थकती आँखें के पत्थर होने पर।
फुर्सत न मिल सकी जब उन्हें,
अपने बीमार से रूबरू होने को;
मेरी घावों की टीस ही शायद,
मज़बूर करे उन्हें खींच लाने पर।
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