उद्दगार (मुक्तक काव्य)

 

            

विमूढ़ताओं में विगलित

होती जा रही संवेदनाएँ,

ठहरो, ठहरो ऐ विश्व!

किससे कहूँ ये वेदनाएँ।

           

कैसी धरा, कैसा धरातल

मिल सके यहाँ कोई तल?

ऊर्ध्वतल कहो, या अधोतल

या फिर कहूँ सुतल भूतल।

           

चलो ढूँढ़ें कोई सटीक सा

संतुलित सा मान्य निग्रह,

जो फूंक दे, कर दे पल में

शांत-विश्रांत सारे विग्रह।

          

भावनाएँ कहीं रूकती

हैं ही कहाँ किसी दम,

उठती हैं बुलबुलों सी,

फूटती हैं जैसे कोई बम।

           

मैं कोई एक नहीं, हूँ कई

मानवों का समूह स्वयं में,

जाने कितने ही समाए हैं

मेरे अंतर्मन के व्योम में।

           

हाट में बिकता-बेचता

सौदा भी मैं, सौदागर भी

भीड़ में ले अकेला मन

चलता सर्पिल पथों पर भी

           

क्रेता भी मैं, विक्रेता भी मैं

वस्तु भी मैं, द्रव्य भी हूँ मैं

प्रत्यक्ष हूँ हाट में बाज़ार में

अस्तित्व के हर कण में मैं।

           

मैं कोई यंत्र तो नहीं,

पर हूँ तो मैं स्व-चलित

इतना जटिल हूँ, कोई

करे भी कैसे परिभाषित।

           

मूढ़ हूँ! गूढ़ हूँ! हूँ किसी

ज्ञान प्रज्ञा से एकदम परे,

मेरी नींव विश्वास-रिक्त,

भवन किस धरा पर धरें।

            

कहाँ है मेरा विकल कल,

आज़ हूँ, कल? क्या पता?

व्यर्थ ना रख आस्था मुझपर,

ईश बन सकूँगा, क्या पता?

           

रूक ज़रा, बस देख तू

इस नग्नता के दृश्य को

मानवों को पशु करे जो,

बिलोक वीभत्स नृत्य को।

           

धूसरित धूल से पीड़ा के

उभरता हुआ कंकाल सा,

लो सम्भालो अब तुम मुझे,

मैं विकट विकराल सा।

           

मैं द्रवित हूँ, हूँ व्यथित मैं

एक दिग्भ्रमित सी बेल सा

बस अनवरत एक युद्ध है,

बस अनवरत एक खेल सा।

            

मनुहार की है प्रतीक्षा,

कोई दिशा इंगित करे

साहस की बस है कमी,

साहस कोई संचित करे।

           

क्या है मेरा, क्या नहीं,

क्या त्यागना, पकड़ना,

कुछ नहीं, सब व्यर्थ है,

क्या भोगना, क्या भागना।

           

पीड़ा उपजाती है हताशा

पीड़ा उपजाती काव्य है,

जो व्यक्त ना हो स्वरों में

वह शब्द गुनते भाव हैं।

           

भ्रांत सा, व्याकुल सा मन

संकुचित सा मेरा श्वसन,

झरने से झरते ये भाव मेरे

भर अंजलि विष या सुमन।

             

कोमल प्रकोष्ठों पर हृदय के

ना जाने क्या क्या है अंकित,

कुछ लेख सा, कुछ मेट सा है,

धूल सा, कुछ स्पष्ट टंकित।

             

वो शिव है, जो पिए हलाहल 

त्यागता-बाँटता अमृत है शंकर, 

अंतस का जब मंथन करूँ मैं 

बस ढोना है अपना कोलाहल।

            

तुम कहो, शंकर हूँ मैं क्या

जो गरल कंठस्थ करता?

जो मिला वही मैं बाँटता

सुख-दुःख में तटस्थ रहता?

            

हीन है जो दिशा से, अर्थ से

क्यूँ चलूँ, किस ओर जाना,

क्या पुकारे, धकेले कोई?

जानूँ जब सब व्यर्थ होना।

           

मैं ही था जो भौंकता था

क्रोध में गुर्राता पितरों पर,

अब मैं ही हूँ जो झपटता

पिंडों के लिए कागों पर।

           

कब कर सका दर्प-तर्पण

सूखा, ऐंठा, टूटा शाख से,

तन के चलता रहा तन से

मन, हृदय और आत्मा से।

           

मैंने कब सोचा, आज-विहान

जाऊँ पूजा, बन सकूँ चिर-महान,

नव-स्त्रोत बने जाए कण-कण

आस ले उन्मत्त हो जाए दिगंत।

           

तुम ही कहो क्या फूटतीं हैं

कोंपलें डालियों पर निर्जीव,

फिर भी, कोई हो ऐसा मौसम

सारा उपवन हो जाए सजीव।

           

स्वाँस आती-जाती है निरंतर 

कुटिल मृत्यु का उद्द्घोष ले,

पर कब कहाँ सुनता है कोई 

सब यहाँ उन्मत्त हैं, बेहोश हैं।

           

सम्बंध भौतिक ही हैं सारे

जीवन प्रवाह कृत्रिम हुआ,

प्रश्न है यह मन से, मनु से

मानव क्यों विगलित हुआ?

           

भटकता जीवन संतुलित हो

या संतुलन ही भटकाव है,

गतिहीनता ठहराव नहीं क्या? 

यदि महत्वाकांक्षा अटकाव है।

            

अनमन्यस्क जीवन का प्रक्षेपण

कहाँ करूँ?  किस पर करूँ?

यहाँ कंठियाँ भी हैं, घंटियाँ भी

पर सब हैं कुंठित, क्या करूँ?

           

संकीर्ण अहं का जाल है ऐसे

मानव मन-मत्स्य फँसा है उसमें

जितना तड़पे उतना उलझे 

काँटा गले में फँसा है उसके।

                  

प्राण सूखे मरुभूमि जैसे 

मृग-मरीचिका सा भ्रम है।

सूर्यपूँज जलकण सा पकड़ूँ

बस विक्षिप्त सा ये मर्म है।


           

सुना था किसी के मुख से  

दैव तो गुंडागर्दी है करता

ग्रह, कर्म, मन और बल से 

फल में परिवर्तन है करता।

            

अपनी कोटरों में बैठा पंक्षी

बस देखता है जीवन प्रवाह

किस दिशा मैं उड़ सकूँगा?

है अनंत यह जल, वायु धार।

            

केवल कर्म पर अधिकार है,

पर फल पर कुछ भी नहीं?

दुर्भोग-तंत्र है ये तानाशाही

और क्या?  कुछ भी नहीं!

           

जानता हूँ,  नर्क ही है,

मेरा तो  अंतिम  स्थल

क्या है जो मैं भोगता हूँ

नित्य अपने  अंतस्तल?

           

मन है रोता ईश का भी

पर ये व्यथा किससे कहे

अपने संतति की दशा पर

अविरल अश्रु नैनों से बहे।

            

निर्झर भाव प्रवाह में अपने 

मानव कोसे ब्रह्म परम को

नियति ही करती है निर्मित

स्व के कर्म-भोग चरम को

            

पाने-खोने का सुख-दुःख

अर्थहीन हो जाता है सब

भूमिशयन ही सार बने जब

पंचतत्व में खो जाता है सब।

            

दौड़ रहा था जाने किस पथ

जाने क्या पाने  की  चाहत

औंधे मुँह जब गिरा ठेस खा

मिली गयी पिपासा से राहत।



……….क्रमशः (to be continued…)



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