वह रात
जाने कैसा दर्द था फैला, वह जाने कैसी पीड़ा थी,
हृदय पे कोई बोझ था या, वह मेरे मन की क्रीड़ा थी,
उड़-उड़ आता मीलों यह मन, कुछ पाने की आशा थी,
थक-थक वापस आ छुपता, हृदय ही उसकी नीड़ा थी।
फिर एक दिवस ऐसा आया, प्रेम भरा हरकारा आया,
कितने स्वपनिल शब्दों की वह, मालाएँ गूंथ लिवा लाया,
पाँव नही पड़ते धरती पर, वह पुष्पों की थी जैसे शय्या,
गगन भरा रंगों से जी भर, जैसे इंद्रधनुष की भूलभूलैया।
साँझ संभल न पाती थी जैसे, बस मंद मंद मुस्काती थी,
मदिर-मदिर मदिरा भी कुछ, मद मोर हिया बहकाती थी,
यादों की निर्मम बदली घिर-घिर, अंधकार फैलाती थी,
रात भी जैसे क्रंदन कर-कर तिमिर-तिमिर गहराती थी।
भटके राह पथिक सा बैठा, मैं सुनसान गलियारे में,
एक आक्रोश भरा था मन में, छुपा रहा अंधियारे में,
प्रणय सुधा खो आया तो अब क्या रक्खा पछतावे में,
एक प्रेम का दीपक पा जाऊँ, तो बदलूँ मैं उजियारे में।
एक तरफ झरता था पावस, एक तरफ नयनों का जल,
जला जला मन ऐसे जल में, जैसे अनल बना हो जल,
जग सोता मैं जाग रहा था, गहन हुई पीड़ा पल पल,
संवाद करे वह झींगुर केवल, या केवल वर्षा का जल।
निशा थी काली काल विकट, भोर अभी थी नही निकट,
हूक सी उठती गहरे मन में, उसी हृदय जाती थी सिमट,
अवसादों के कितने विषधर, गए मनस से लिपट लिपट,
फिर एक तड़ित चमका नभ में, और हृदय में गया छिटक।
आँखें बरसीं, नभ भी बरसा, बरसा सारा हृदय और मन,
पावस था पावक जैसा ही, माँज दिया मानस, तन, मन,
प्रेम में पाने-खो देने के निम्न तलों से ऊपर उठ कर ही,
पीड़ा, शोक, विकारों से फिर मुक्त हुआ यह अंतर्मन।
Comments
Post a Comment