विषालय

यह विष पूजता संसार है या कोई विषालय...?

कितना विद्रूप है यह भौतिकताओं का विश्व,

दीवारों में बंद मनुष्यता, आत्मकेंद्रित मनुष्य,

वस्तुवादों के रथों में जुते मदांध मानवाश्व,

नित गहन होता संकीर्णताओं का विद्यालय।


निष्प्राण मूर्तियों पर कितना अथक श्रृंगार,

मुखमुद्राओं में झूठे रंगमंच सा जटिल भार,

प्रतिपल गिरगिटों से रंग बदलते इश्तहार,

नित निर्मम होता वेदनाओं का संग्रहालय।


कुटिलताओं का व्याकरण कितना विस्तृत,

विषैले भावों के शास्त्रविद नित्य पुरस्कृत,

ज़हरीले पर्दों में क्षण-क्षण नग्न मनुष्यता,

नित गूढ़ होता यह छलनाओं का शिवालय।


शिलाओं के सम्मुख चीखना और सुनना,

अपनी ही प्रतिध्वनियों की व्यर्थ उलाहना,

विखंडित अस्तित्वों को कठिन है सम्भालना,

नित नए पत्थरों की भीड़ सहता क्रीड़ालय।


अनुरोधों का तिरस्कार यहाँ कितना सरल,

अधिकारों का संसार अति विगलित गरल,

मद भर बहते तरल, जीवद्रव्य कितने विरल,

नित मैली होती गंगा, नित सँवरते मदिरालय।


यह विष पूजता संसार है या कोई विषालय...?

Comments

Popular posts from this blog

कोई रिश्ता

प्रेयसी

मराहिल