अक़्स


मसल आता हूँ मैं अक्सर

उन रिसते फफोलों को,

जो दिल की दीवारों पर

हैं बरबस उभर आए।

एक आस अब भी मगर

बाक़ी है जीने के लिए,

जाने किस दीवार पर

तेरा अक़्स निकल आए।


वो जो कदमों के निशाँ

छोड़े थे हमने रेत पर,

धुल गए भटकती लहरों की

आवारा सी चहलकदमियों में।

संभाल रखे थे वो जो

कुछ सूखते फूल यादों के,

जाने कबके उड़ गए

गुजरते वक़्त की आँधियों में।


रु-ब-रु हो पाए कहाँ हम

यूँ ही जमाने से डरते गए,

मंजर बदलता गया ज़िंदगी का

और रास्ते मुड़ते गए।

जो बच सके ना दिल की

तड़पती आवाज़ों से हम,

कभी आहों में ढाला उनको

कभी ग़ज़लो सी सुनते गए।


तेरी एक झलक को बस

क्या-क्या ना कर देखा हमने,

हर गुजरते चेहरे पे ज्यूँ

एक झरोखा सा देखा हमने।

जाने कब किस चेहरे में

तेरी सूरत निकल आए,

उम्र काटी जागते बुत सी

कभी आँखों को ना मूँदा हमने।


जाने कितनी ही मालाएँ

फेर डालीं हमने तेरे नाम की,

सुना था कभी इस तरह

मिल जाता है ख़ुदा भी।

पर इबादत से ख़फ़ा है तेरी

वो मुझसे कुछ इस कदर,

कि कट जाती है ज़ुबान मेरी

जो भूले से लूँ उसका नाम भी।


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