तुम्हारा चेहरा
पलाश के फूलों सा तुम्हारा चेहरा
कुछ यूँ याद आता है हर वक़्त,
जैसे समय के दरख़्तों पर हर जगह
तुम्हारी कोंपलें फूट पड़ी हों।
याद तुम्हारी सावन की झड़ी सी
सींच जाती है मेरे अकेलापन को,
जैसे गाँव की पगडंडियों पर गिरकर
कुछ बूँदें सोंधी सी महक जाती हों।
तुम्हारे विरह की जलती सी चुभन
रातों को झुलसा देती है इस क़दर,
जैसे दूर जंगल में लगी कोई आग
हवा के झोंकों से भड़क जाती हो।
वो तुम्हारी ज़ुल्फ़ों से गिरा पानी
अब भी अटका है मेरे गालों पर,
जैसे प्यार की छोटी सी निशानी
मुझसे बिछड़ जाने से डरती हो।
इंतज़ार उन काली घटाओं का है
जो बरसा करती थी इन मुँडेरों पर,
पर अब जब तुम नहीं तो जैसे
उन्हें भी मुझसे शिकायत हो गई हो।
शंख पूजा के फूँके हैं किसी ने
मेरे भटकते मन के मंदिर में,
जैसे अज़ाने हों ये तुम्हारे प्रेम की,
जो मुझे हर वक़्त सुनाई देती हों।
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