चकित हूँ
चकित हूँ,
कहाँ था यह प्रेम
जो कह ना सका
तब,
जब तुम पास थीं
हर क्षण हर पल
एक उन्माद सा बिखेरती;
अपने और मेरे होने का
अहसास कराती
अपनी चहलकदमियों से;
जब पायलें झंकृत हो उठतीं
कभी दूर जाती,
कभी पास आती
तुम्हारी पदचापों से,
और तुम्हारे केवल छू लेने भर से
मैं डूब जाया करता
कितनी ही मधुशालाओं में;
नही जानता
वासना प्रेम से बहती
या
प्रेम पल पल उतर जाता
वासनाओं में
और मैं गुम हो जाता,
विलीन हो जाता कहीं
तुममें ही;
जानता हूँ,
तुम चाहतीं रहीं
मैं कह दूँ तुमसे है प्रेम;
किंतु
वही प्रेम अब नृत्य करता है
अधूरा, विस्मित सा,
हर परदे हर दीवार पर,
खोजने लगा है तुम्हें हर जगह;
कितना विस्तृत हो गया है
तुमसे बिछड़ कर,
छा गया है मेरे सारे वज़ूद पर।
बंधनों की रेल पर सरकता जीवन,
जाने क्यों
क्रमशः
भूल जाता है प्रेम,
पुनरावृत्तियों की ऊब में
कहीं खो जाता है,
किंतु परिवर्तन
वियोग का, एकाकीपन का
फिर से जगाता है प्रेम।
जाने कैसे
तुमको बांधे रखा बरसों,
तुम निभाती रहीं बरसों
पर अब जब तुम पास नहीं,
तो समझ पाया कि
बस
वो तुम्हारा होना, मेरा खोना,
और वो तुम्हारा बंध जाना,
शायद
वह सब ही था प्रेम।
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