कभी देखा है तुमने?
कभी देखा है तुमने?
सूनसान सड़कों पर भटकती हुई
रात,
जो शायद उदास है,
विक्षिप्त,
या फिर निर्विकार, निर्निमेष,
या शायद निरूद्दयेश;
मेरी या तुम्हारी तरह,
ख़त्म हो जाने की,
प्रतीक्षा में
बैठी है एक पुल पर,
या किसी खम्भे के नीचे,
जिसके शीर्ष पर लगा हुआ
प्रकाशबिंदु बिखर गया है
अब टूट कर।
कभी देखा है तुमने?
ईंट-पत्थरों से बने हुए मकान,
या
ताबूतों की शक्ल की
कुछ आकृतियाँ,
जिसमें छिपे हुए गिरगिट
या कुछ कीड़े-मकोड़े
या
ज़हरीली सी
कुछ आदमकद आकृतियाँ
हिलने-डुलने लगी हैं,
अपनी ही तरह
कुछ और
पैदा कर देने की कोशिश में,
जो फिर
दफ़न हो जाएँगे
उन्हीं की तरह
उन्हीं ताबूतों में
पैदा होकर।
कभी देखा है तुमने?
अपने आप में व्यस्त से,
या कुछ
तानाशाह से कदमों से खाकर
ठोकर,
बार-बार इधर-उधर
लुढ़कता हुआ
एक पत्थर,
गिर जाता है किसी नाली में
या
किनारे पर पड़े हुए
कूड़े के ढेर पर
रूक जाता है,
किसी डरे सहमे,
ठिठुरते हुए
लहूलूहान से कुत्ते की तरह
और वही कदम
फिर ढूँढने लगते हैं कोई नया
पत्थर।
कभी देखा है तुमने?
आज भी कुछ
प्रतिष्ठित, पढ़े-लिखे
स्नातकोत्तर,
सफ़ेदपोश,
शताब्दियों पीछे जाते हुए
उत्तरोत्तर,
मंच पर भाषण देते हुए
कुरीतियों के विरूद्ध,
घोंट रहे हैं गला,
अपने ही घर में
अपने ही लोगों की
भावनाओं का,
अपनी झूठी शान को
जीवित देख सकने को कटिबद्ध,
खुश हैं
अपनी उस भेड़-चाल के लिए
जो गिरा देगी उन्हें
किसी अंधे कूँए में,
पल भर में
समाप्त हो जाएगा
सब कुछ,
और अर्थहीन हो जाएगा
देना कोई भी
प्रत्युत्तर।
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