ज़िंदगी


जिगर भी चाक और दामन भी तार तार

कभी ख़ंजर कभी काँटों को कोसा हमने

इबादत की जिस ख़ुदा की बेख़ुद होकर

हौसला उसका भी डगमगाते देखा हमने।


भर लेते परवाज़ आसमाँ को छूने को

क्या करते जमीं ने दबोचे रखा हमको

रश्क था जिन कोहकनों से उनको भी

इक शाम थक कर लौटते देखा हमने।


गुमाँ था ज़िंदगी को ख़ुद पर इस क़दर

कि वो बर्बाद कर छोड़ेगी हमको, मगर

कुछ ख़बर न थी बेचारे को कि उसको 

लतीफ़े से बढ़कर कुछ ना समझा हमने।


कभी अश्कों में डूबे रहे, कभी कहक़हों में

ज़िंदगी तुझे क्या बतायें कैसे जिया हमने

ख़्वाहिशों के जाने कितने ही क़हकशों को

बस यूँ ही पैमानों में ढाल कर पिया हमने।


रात-दर-रात स्याहतर ही होती रहीं

घटायें सर्द-बेदर्द ज़िंदगी की, मगर 

चराग़ उम्मीदों के रौशन करते रहे हम

और हथेलियों को फ़ानूस बनाया हमने।


माना कि मंज़िलें भी खोती रहीं और

कारवाँ भी बिछड़ता रहा हमसे, मगर

अब दोनों हमें ढूँढते फिरते हैं बेसब्र से 

इस क़दर लहू में उबाल उठाया हमने।

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