अंत्येष्टि – एक लघु उपन्यास


धन्यवाद!


       सर्वप्रथम, मैं अपने जीवन की उन समस्त विषम परिस्थितियों को, विशेषतः विगत ढाई-तीन वर्षों के मृत्यु-तुल्य कष्ट प्रदान करने वाले घटनाक्रमों को धन्यवाद करता हूँ जिन्होंने भाग्यवश या दुर्भाग्यवश, जो भी कह लें, मुझे इतना समय प्रदान किया कि मैं कुछ क्षण ठहर कर अपने अतीत पर दृष्टिपात कर सकूँ। इस ठहराव, इस अवलोकन ने जीवन के प्रति मेरे दृष्टिकोणों को एक अलग ही आयाम दिया और मेरी भावनाओं को उद्वेलित और आंदोलित किया। 


      अगले चरण का धन्यवाद अवश्य ही मेरी योग्य पुत्री “आकांक्षा” को जाता है जिसके ज़िद, आत्मीय मनुहार, और दृढ़ विश्वास ने मुझे अपनी उन बाधित, असंतुलित किंतु बाहर आ सकने को बेचैन भावनाओं को लिपिबद्ध करने को प्रेरित किया।


      किंतु, यक्षप्रश्न तो यह था कि यह सब तभी सम्भव हो पता जब मैं जीवित रहता। मेरी प्राणप्रिय धर्मपत्नी “शोभा” के अथक प्रयासों और कभी न झुकने वाले आत्मबल ने मुझे बार-बार यमराज के हाथों से ठीक उसी प्रकार मुक्त करवाया है जैसे सावित्री ने सत्यवान के प्राण वापस पाए थे। विशेषतः COVID-19 और लॉकडाउन जैसी विषम परिस्थितियों में जब कोई पारिवारिक सहायता भी उपलब्ध हो पाना असम्भव था, उसकी कर्तव्यनिष्ठा और मुझे जीवित रखने की ज़िद उस दशरथ माँझी का पर्याय बन गयी जिसके पत्नी-प्रेम के ज़िद ने एक दुर्गम पहाड़ को तोड़ कर रास्ता बना डाला था।


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समर्पण

      आदरणीय पाठकों,


      सर्वप्रथम, आपके समक्ष इस सत्य को उद्घाटित करने और पूर्णरूपेण स्वीकार करने में मुझे किंचित भी संकोच नहीं कि मैं कोई स्थापित उपन्यासकार नही हूँ, और न ही मेरा यह साहित्य रचनात्मक स्वरूप में कोई उपन्यास ही है। जैसे कोई बीज अनुकूल समय और वातावरण पाकर अंकुरित हो एक वृक्ष का रूप ले लेता है, वैसे ही एक अत्यंत छोटी सी किंतु बाल-मन पर अमिट छाप छोड़ देने वाली घटना और उसका आजीवन संस्मरण ही इस कहानी का प्रेरणास्रोत रहा है। आप कह सकते हैं की यह कहानी से अधिक एक ऐसी भावनात्मक यात्रा है, जिसने मेरे भीतर के रचनाकार को हमेशा ही उद्वेलित और विवश किया कि मैं उसे विवरणात्मक रूप से निबंधित करूँ। मुझे अत्यंत नज़दीक से जानने वाले कुछ शुभाकांक्षी लोगों ने जिज्ञासावश टोका भी कि पहला उपन्यास और इस विषय पर, ऐसा क्यों? इस स्वाभाविक प्रश्न का उत्तर देने का भरसक प्रयास किया है मैंने अपनी इस काल्पनिकता और वास्तविकता के सम्मिश्रण से बुनी हुई कहानी में।


    मेरी यह रचना संसार की उन सभी बालिकाओं, युवतियों, और स्त्रियों को सादर समर्पित है जिन्हें इस क्रमशः विगलित होते पुरुष-प्रधान समाज की कामुकता, लालसा और अहंकार ने बलात् वेश्यावृत्ति के नर्क में धकेल दिया है। परिणामस्वरूप, यह वर्ग हमेशा ही शुद्ध प्रेम और मातृत्व के गहन, यथार्थ और परम सुख से वंचित रहा। जो समाज दो वर्ष की बालिका से लेकर 80 वर्ष की वृद्धा के यौनशोषण जैसे घृणित कृत्य पर भी लज्जा से सिर न झुकाता हो, उसी समाज में पुरुष और प्रकृति के संतुलन को किसी न किसी रूप में बनाए रखने में इस शोषित वर्ग ने सम्भवतः सृष्टि के प्रारम्भ से ही अपना अतुलनीय योगदान दिया है।


     विचारणीय है कि हमने सदियों से प्रवृत्तिवश स्वच्छ को गंदा ही किया है। शायद यही कारण है कि शिव की जटाओं से निकलने वाली स्वर्गवासिनी निर्मल गंगा कहीं कहीं तो केवल एक गंदी नाली में परिवर्तित हो गयी है। पुरुष रूपी नालियों से अनवरत निकलने वाली गंदगी को अपने में पूर्णतः शोषित कर सकने की शक्ति सम्भवतः केवल इस गंगा रूपी वर्ग में ही है। शायद यही कारण है कि आज भी आदिशक्ति देवी दुर्गा की मूर्ति में प्रयुक्त होने वाली पहली मिट्टी किसी वेश्या के आँगन से ही आती है। 


     जिस प्रकार हमारी सैन्य-शक्ति का समर्पण देश को सुख की नींद प्रदान करता है, उसी प्रकार इस शोषित वर्ग की सहनशक्ति और उनका वैराग्य भाव से देह-समर्पण समाज के अनगिनत परिवारों को सुख की नींद और सुरक्षा प्रदान करता है। हालाँकि, पाठकों के एक बड़े वर्ग के लिए ये सिक्के का एक ही पहलू हो सकता है जो की इस बदलते समाज के परिप्रेक्ष्य में अवश्य ही सत्य है, और मैं सादर शीश झुका कर उनके इस तर्क को स्वीकार करता हूँ। यूँ भी, जिस दुनिया की अर्थव्यवस्था को तीन बेहद घृणित और ख़तरनाक व्यवसायों जैसे देह व्यापार, हथियारों, और मानव अंगो की ग़ैरकानूनी आपूर्ति द्वारा अंडर्वर्ल्ड अपनी मुट्ठी में रखता हो, उस दुनिया में किसी भी तरह की अपेक्षा आश्चर्यजनक कहाँ हो सकती है?


   ख़ैर, विचारों और भावनाओं की धारा इतनी तीव्र और चक्रवाती रही है कि उसे इस एक रचना में बांध पाना मेरे लिए लगभग असम्भव ही रहा है, किंतु जो कुछ भी लयबद्ध कर पाया हूँ वह आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ इस आशा के साथ कि यदि कहीं किसी एक पाठक के हृदय को भी मैं छू सका, तो मेरा यह भगीरथ प्रयत्न सार्थक हो सकेगा।


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अंत्येष्टि


एक लम्बी सीटी के साथ ट्रेन रेंगते हुए स्टेशन छोड़ने लगी थी। हाथ हिला-हिला कर अपने प्रियजनों को विदा करते लोग अब मन मसोस कर लौटने लगे थे। जैसे-जैसे प्लेटफॉर्म का कोलाहल कम होने लगा, मेरे भीतर का शोर अब और ज़्यादा तीव्र और घनीभूत होने लगा था। वैसे तो यह शोर शांत ही कब हुआ था, पर अब महसूस अधिक हो रहा था। खिड़की के बाहर तेज़ी से बदलते दृश्यों के साथ सब कुछ पीछे छूटता जा रहा था। हर पल एक नया दृश्य तेज़ी से भागता हुआ आता और उसी तेज़ी से निकल जाता। शायद जीवन भी कुछ ऐसा ही था, अपनी खिड़की वाली सीट पर बैठा बाहर देखते हुए मैं सोचने लगा था। मुट्ठी की रेत की तरह सब छूट जाता है। हर क्षण बदलते दृश्यों, हर समय घटित होती छोटी-बड़ी घटनाओं का समूह ही है जीवन, या फिर केवल नए-नए आश्चर्यों का प्रतिपल प्रक्षेपण, और कुछ नहीं । हम कहाँ कुछ रोक पाते हैं या बदल पाते हैं। संभवतः ये हमारा भ्रम ही है कि हम कभी कुछ कर भी पाते हैं। मनुष्य का तो इतना भी वश नहीं कि एक नियत समय से अधिक वह कहीं ठहर भी सके। बस चल पड़ना, गुज़र जाना, या अवाक रह जाना ही हमारी नियति है। 


मैं भी आज फिर एक बार चल पड़ा था अपने एक नये गंतव्य की ओर। साढ़े-तीन वर्ष पूर्व एक यात्रा आरम्भ की थी जब मैंने लगभग 18 साल की उम्र में घर छोड़ा था एयर फ़ोर्स के अपने तकनीकी प्रशिक्षण के लिए और यहाँ चेन्नई आया था। फौजी बनने का चुनाव कोई बहुत सुखद चुनाव नहीं था मेरे लिए, हाँ थोड़ा बहुत झुकाव अवश्य था इस तरफ, किन्तु तब शायद और कोई उपाय शेष नहीं था। कई बार विषम परिस्थितियों में एक रण को छोड़ दूसरे का चुनाव ही उचित प्रतीत होता है, भले ही रणछोड़ होने या भगोड़े होने कि ग्लानि से ही क्यों न लड़ना पड़े। आज वही प्रशिक्षण पूर्ण कर मैं अपनी नयी पोस्टिंग पर हैदराबाद के लिए चल पड़ा था। इन साढ़े-तीन वर्षों में बहुत कुछ घटित हुआ, भौतिक धरातल पर भी और मानसिक धरातल पर भी। पारिवारिक परिस्थितियों से, क्रमशः कठिन प्रतीत होती जा रही पढ़ाई से, और निरर्थक लगने वाले जीवन से भागा हुआ युवा अब एक मज़बूत, दबंग, बलिष्ठ, धैर्यवान और साहसी सिपाही में तब्दील हो चुका था, और उसे अपनी इस सफलता पर गर्व भी था। किन्तु मन और शरीर आपस में कितने भी जुड़े हुए और एक दूसरे पर निर्भर क्यों न हों, उनके रसायन एकदम भिन्न हैं। उनकी ज़मीने अलग हैं। शरीर कितना भी चट्टानी क्यों न बन जाये, मन की धरती नम ही रहती है, संभवतः इसी कारण अनगिनत विचारों और भावनाओं के बीज अंकुरित होते रहते हैं उस पर। तेज़ी से पीछे छूटते शहर को जैसे पकड़ लेने की कोशिश में मन भी पीछे ही भागता जा रहा था। इतने वर्षों में इस शहर ने बहुत कुछ दिया था मुझे, किन्तु जो छीना था उसकी कीमत क्या लगाऊँ, समझ नहीं पा रहा था। कोई और समझ सकेगा इसकी अपेक्षा भी केवल अंश मात्र ही थी। पाने और खो देने के सुःख-दुःख से, लाभ-हानि के तराजुओं से सामान्य मनुष्य कहाँ खुद को अलग कर पाता है? निर्विकार हो जाना ही एकमात्र उपाय हो, निर्विचार हो जाना ही समाधान हो संभवतः। किन्तु हम देव तो नहीं; वास्तव में हम मनुष्य भी कहाँ ठीक से बन पाते हैं। यदि बन पाने का थोड़ा भी प्रयत्न करें तो शायद जो विचार मुझे आज उद्वेलित कर रहे थे, उनसे बच पाना असंभव ही होगा।


आखिर थी ही वो कौन मेरी? शायद कुछ भी नहीं। हो भी कैसे सकती थी? आखिर कोई रक्त का सम्बन्ध तो था नहीं हमारा, हालाँकि जितनी खिल्ली इस समाज ने रक्त के संबंधों की उड़ाई है, उतनी शायद ही किसी और सम्बन्ध की उड़ाई होगी। देह के व्यापार जैसे जघन्य दुष्कर्म में लिप्त एक स्त्री से, एक वेश्या से मेरा सम्बन्ध हो भी कैसे सकता था? अगर हो सकता था तो बस केवल एक ही सम्बन्ध, कुछ पैसे फेंक कर एक जीवित माँस के लोथड़े को किसी पशु की भाँति भोग लेने का सम्बन्ध। यही एक सम्बन्ध तो स्थापित कर सका था पुरुष इस वर्ग की स्त्रियों के साथ। अपनी पौरुषहीनता, लोलुपता और काम-वासना के आधिक्य से उपजे इस अभिशाप का जिम्मेदार वह अभी भी स्वयं को कहाँ मानता है? इतना साहस! असंभव। शहर के बाहर धीरे धीरे खड़े होते कूड़े के पहाड़ को देखकर हम सारे व्यवस्था-तंत्र को कोसते रहते हैं, हवा के साथ बहकर आती उसकी दुर्गन्ध से नाक-भौं सिकोड़ते रहते हैं, किन्तु उस विगलित ढेर को जन्म देने में अपने योगदान को स्वीकार करने का आत्मबल यदि जुटा पाते तो संभवतः परिस्थिति कुछ भिन्न हो सकती थी। और यह तो वह ढेर है जो प्रत्यक्ष है। पुरुष की स्त्री के प्रति छिपी हुई आसुरी प्रवृत्ति और घृणित अमानवीय कृत्यों से रोज़ निर्मित होते उन छोटे-छोटे ढेरों का क्या जिन्हें अक्सर या तो स्वच्छता के आवरण में ढक दिया जाता है, अथवा एक दिन उठा कर उस बड़े ढेर पर उड़ेल दिया जाता है।


उसके कठोर निर्देश, हाथ जोड़कर की गयी प्रार्थना, और अनगिनत दिलवाई गई कसमों के बावजूद भी मैं स्वयं को नहीं रोक पाया था, और अंततः अब जब मैं हमेशा के लिए यह शहर छोड़कर जा रहा था, कल शाम फिर एक बार मैं खुद को उन सीढ़ियों पर खड़ा पाया। पिछले लगभग पौने-दो सालों तक मैंने खुद को रोक रखा था, किन्तु एक अंतिम बार उसे देखने की इच्छा को नहीं दबा पाया था। मुझे देखते ही उसकी वही पुरानी मालकिन ने मेरा रास्ता रोक लिया। वह भी शायद मुझे भूल नहीं पायी थी, तुरंत पहचान लिया। 

“अब क्यों आये हैं यहाँ? आपको तो मना किया था न पूर्णा ने यहाँ आने से!” आज पहली बार मुझे उसका नाम ज्ञात हुआ था। मेरी आत्मग्लानि ने मुझे थोड़ा हतप्रभ कर दिया। फिर महसूस हुआ की पिछली मुलाकात की परिस्थितियों में नामों की कोई महत्ता नहीं रह गई थी। जिन भावनाओं की पराकाष्ठा से हम दोनों गुजरे थे उसमे नाम पूर्णतः निरर्थक ही थे। नाम निरर्थक ही होते हैं, केवल कामचलाऊ सम्बोधन या बस एक सहूलियत का साधन। फूलों को कितने ही नाम दे दिए जाएँ, सुगंध को हम कहाँ किसी नाम से परिभाषित कर सके हैं?

“हाँ, याद है, मगर कल मैं हमेशा के लिए यहाँ से जा रहा हूँ, मेरी ट्रेनिंग ख़त्म हो गई है, इसलिए बस एक बार मिलना चाहता था।”

“बाबू, वो खुद ही हमेशा के लिए चली गई।” उसकी आवाज़ में झलके दर्द का अनुभव कर मैंने थोड़ा विचलित सा महसूस किया स्वयं को। कुछ अप्रिय घटित होने की सम्भावना ने या शायद उससे न मिल पाने की आशंका ने व्यथित कर दिया।  

“कहाँ?”

उसके बाद उसने जो बताया वह मेरे लिए किसी दुःस्वपन और आत्मिक आघात से कम न था। इतनी पीड़ा, इतना बोझ मेरा ह्रदय सहन न कर सका। मैं फफककर रो पड़ा था। अपूर्ण और अप्राप्य ममता का अतिरेक कोई भी सीमा लाँघ सकता था, इसका अहसास मुझे पहली बार हुआ था। इस पूरे घटनाक्रम में मैं स्वयं को कहाँ खड़ा करूँ, मेरे लिए यह समझ पाना एकदम असंभव था। गौरवान्वित समझूँ स्वयं को उनके, दूर से ही सही, किन्तु आजीवन निर्बाध और निःस्वार्थ ममत्व के लिए, या अपराधी महसूस करूँ उनकी इस ममता भरी साधना और त्याग के लिए? कुछ भी हो, आज पहली बार मेरे मन, ह्रदय और विचारों की सोच ने “उस” को “उन” में परिवर्तित कर दिया था। इतनी श्रद्धा और आदर से संभवतः पहली बार मैं सोच सका था उनके बारे में। शायद यही अंतिम श्रद्धांजलि थी मेरी उनको। शब्दों में परिलक्षित श्रद्धा और आदर बेमानी होते हैं, केवल धोखे के सिवा कुछ नहीं। भावों में उपजी श्रद्धा ही आराध्य को समर्पित हो पाती है। पौने-दो साल पहले पिछली मुलाकात के तीसरे दिन ही जंगल में पहाड़ियों से घिरे उस बड़े से तालाब में जल-समाधि ले ली थी उन्होंने। जैसे मुझसे मिलकर उनकी चिर-प्रतीक्षा समाप्त हो गयी थी और साथ ही समाप्त हो गयी थी उस अर्थहीन, गन्दगी और अत्याचार से परिपूर्ण घृणित जीवन की आवश्यकता जिसे वो केवल ढो रही थीं किसी आशा से। उनकी मालकिन ने धीरे से मेरा हाथ पकड़ा और अपने कमरे में ले गयी। दीवार पर उनकी तस्वीर और उस पर टंगे सूखे फूलों की माला ने एक बार फिर मेरी आँखें नम कर दी। मालकिन ने कुछ फूल ला कर मेरे हाथों में रख दिया। फूल अर्पण करते समय लगा जैसे आज मैं उनकी अंत्येष्टि का रहा हूँ। फिर एक छोटा सा सन्दूक खोलकर उस मालकिन ने एक सलीके से मुड़ा हुए काग़ज़ का टुकड़ा निकाला और मेरे हाथों में रखते हुए बोली, “पूर्णा ने आपके लिए दिया था जाने के एक दिन पहले। मुझे क्या पता था कि वो फिर नहीं लौटेगी। इसमें पता नहीं क्या लिखा है, मैं पढ़ नहीं सकी, किसी और को दिखाने से मना किया था उसने।” भारी और विचलित मन से मैंने उस कागज़ के टुकड़े को खोला। बंगाली भाषा में लिखा था पूर्णा ने। वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित है यह तथ्य की किसी की लिखावट से उसके व्यक्तित्व को काफी हद तक पढ़ा जा सकता है। जितनी सुन्दर पूर्णा थीं, उतनी ही सुन्दर उनकी लिखावट। पढ़ना तो नहीं जानता था किन्तु अच्छी तरह से परिचित अवश्य था मैं इस भाषा से, आखिर मेरा बचपन बीता था कलकत्ते में, सोचने लगा कि किससे पढ़वाया जा सकता है इस पत्र को। बंगाली मित्र कई थे मेरे, फिर भवानी का ध्यान आया, उसे देखा था बंगाली पढ़ते-लिखते कई बार। एक संतोष का भाव उभरा मन में। पत्र को संभाल कर रख लिया था मैंने। क्या लिखा होगा उन्होंने, क्या था ऐसा जो वो कह नहीं पायी थीं मुझसे? यही सब सोचते हुए मौन, स्तब्ध,और बोझिल मन से मैं लौट आया था अपनी नयी यात्रा के लिए तैयार होने।


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ट्रेन एक लम्बी सीटी के साथ रूक गयी थी किसी बियाबान जंगल में। शायद क्रॉसिंग थी किसी सामने से आने वाली गाड़ी की। मेरी तन्द्रा भंग हुई सामने की सीट पर बैठे भवानी के जोर-जोर से आवाज़ देने पर। 

“कुछ खायेगा?” उसने मेरी आँखों में आँखें डालकर पूछा। उत्तर जैसे जानता था वह, बस मेरे मुंह से सुनने की प्रतीक्षा कर रहा था।

“नहीं, मन नहीं है, तू खा ले।” मैंने अनमन्यस्क सा उत्तर दिया। मैं फिर अपने विचारों में लौटने लगा था। बियाबान जंगल, प्राकृतिक सुंदरता, और सामने पेड़ों पर उछलते कूदते ढेरों बन्दर भी मुझे बांध नहीं पा रहे थे। सहसा सामने से आने वाली ट्रेन अपनी पूरी गति से उस जंगल की प्राकृतिक शांति को भंग करती हुई गुज़र गई। हमारी गाड़ी पुनः रेंगने लगी थी सिगनल पाकर और मैं पुनः अपने विचारों की कंदरा में प्रवेश कर गया था।


भवानी, छोटी और दुबली क़द-काठी का बिहार के किसी ग्रामीण क्षेत्र के ठाकुर परिवार का एकमात्र चिराग, पांच बहनों का इकलौता वीर भाई। थोड़ा-थोड़ा डरपोक भी, कई बार मैं सहसा उसके क्षत्रिय होने पर संदेह करने लगता था। हाँ, जब उसकी घनी धनुष की तरह ऊपर की ओर तनी ऐंठी हुई मूँछों को देखता तब यह संदेह वाष्पित हो कहीं उड़ जाता था। वह मेरे गिने-चुने घनिष्ठ मित्रों में से एक था। हम दोनों ही कुलीन परिवारों से आते थे और अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारियों का एहसास भी हमें अवश्य ही था। यूँ तो हम 20 वर्षों के हमउम्र ही थे, पर उसकी समस्या यह थी कि वह लगभग तीन वर्षों से विवाहित था, अर्थात् स्त्री-देह उसकी कमज़ोरी बन चुकी थी। हम दोनों ने अपनी ट्रेनिंग एक साथ पूरी की थी और हमारी पोस्टिंग भी एक साथ ही हुई थी। मेरे साथ पिछले साढ़े-तीन सालों में हुई कुछ अप्रत्याशित घटनाओं का एकमात्र सम्पूर्ण श्रोता, आंशिक साक्षी, और कहीं न कहीं आंशिक ज़िम्मेदार भी था भवानी। जमीन-आसमान की वैचारिक और भावनात्मक स्तर की भिन्नता के बावजूद भी यदि हम मित्र थे तो इसके दो ही कारण थे। एक तो वह कभी भी अपनी कमियों को स्वीकारने में तनिक भी संकोच नहीं करता था, और दूसरा, किसी भी परिस्थिति में अपने दोस्तों का साथ नहीं छोड़ता था। कल शाम भी जो कुछ हुआ था उससे और मेरी वर्तमान मनःस्थिति से वह पूर्णतः अवगत था। पत्र पढ़कर आँखें उसकी भी भर आयी थीं, हिंदी में बताना शुरू ही किया था उसने पर पता नहीं क्यों उसके मुँह से सुनने  की इच्छा नहीं हुई मेरी। हठात रोक दिया था मैंने उसे। 

“नहीं, नीचे की बची हुई जगह में एक-एक शब्द का जैसा का तैसा अनुवाद हिंदी में लिख दे बस, कुछ छूटना नहीं चाहिए।” लगभग आदेश देने के लहज़े में मेरे मुंह से निकला।

“ठीक है।”

थोड़ी देर वह लिखता रहा, फिर कागज़ मुझे थमाते हुए बोला, “यार, जो हुआ उसे भूल जा।” इससे अधिक न तो कुछ और कहने की उसकी हिम्मत हुई थी और न ही उसके सामर्थ्य में था शायद। नज़र भर कर मैंने उस पत्र को पढ़ा, फिर चुपचाप अपनी ज़ेब में रख लिया। भावनाओं के उठते ज्वार को अपने भीतर ही कहीं आत्मसात करने का प्रयत्न करते हुए मैंने धीरे से भवानी से कहा, “ठीक है, तू जा!” सुनते ही वह मुड़ा और जाने लगा था, रूकना बेकार था इतना तो वह समझ ही चुका था। उस वक़्त मुझे अकेला छोड़ देना ही उचित लगा होगा उसे। मैं उसकी पीठ पर नज़रें गड़ाए उसे जाता देखता रहा। संभवतः उन नज़रों का एहसास था उसे। जीवन को हमेशा हलके में लेने वाले भवानी को आज अपना एक-एक कदम भारी प्रतीत हो रहा था। आज पहली बार मैंने उसके कन्धों को झुका देखा। जिन कन्धों को उचकाकर वह जीवन की विषमताओं को झटक दिया करता था, आज उन्ही कन्धों पर जैसे टनों बोझ रख दिया हो किसी ने। अपनी एक ज़िद का यह परिणाम देखने मिलेगा उसे, ऐसी स्वप्न में भी कल्पना नहीं की होगी उसने। किन्तु किसी घटना के केंद्र में होना और बात है, और परिधि पर रह कर केवल द्रष्टा होना और बात। इस बात का सुकून उसे ज़रूर रहा होगा की इस पूरे घटनाक्रम के केंद्र में नहीं था वह। केवल एक उत्प्रेरक की भूमिका ही थी उसकी बस, और दर्शक तो हमेशा ही स्वतंत्र है अपने दृष्टिकोण अपनी सहूलियत से बनाने और बदलने लेने को। किन्तु यह स्वतंत्रता केंद्र पर स्थित व्यक्ति के पास नहीं होती। जीवन को फिर से यथावत् चलायमान कर सके, इसके लिए उसका सारे घटनाक्रम को अपनी पूरी क्षमता और बारीकी से अवलोकन कर पाना आवश्यक होता है। इसमें स्वयं को बहला लेने या धोखा देने की सुविधा एकदम नगण्य होती है। एकदम व्यावहारिक दृष्टिकोण था भवानी का कि समय हर घाव भर देता है। वैसे भी, किसी भी व्यक्ति या घटना को स्वयं पर हावी न होने देना उसकी हमेशा की रणनीति रही थी, जो संभवतः आवश्यक भी है भावहीन शून्यता और स्वार्थपूर्ण निश्चिंतता के लिए। किन्तु यदि गहरे में देखें तो समाज इसी तरह के व्यक्तियों और व्यक्तित्वों से भरा पड़ा है। हम सिनेमा के परदे पर प्रदर्शित नकली भावुकता को देखकर आँसू बहाने के लिए टिकट खरीदते हैं, और उन आंसुओं से हमारे अहम् की तुष्टि भी होती है कि देखो हम कितने मानवीय, दयावान, कोमल और सहृदय हैं, किन्तु उन्हीं भावनाओं की हमारे वास्तविक जीवन में कीमत दो पैसे की भी नहीं होती। खैर, समझदार व्यवहारिकता तो यही है, चाहे कोई माने या न माने। सच कहूँ तो मैं स्वयं को भी भवानी जैसे असंख्य लोगों की भीड़ से अलग नहीं कर पाता यदि उस एक घटना ने मेरे सारे अस्तित्व को झकझोर न दिया होता।


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मैं भारतीय वायु सेना के अपने प्रारम्भिक (ab initio) एक वर्ष के प्रशिक्षण को समाप्त कर अगले चरण में प्रवेश कर चुका था और इस चरण के भी  लगभग तीन महीने हो चुके थे। वरीयता की एक छोटी सी सीढ़ी चढ़ पाना भी एक बड़ी उपलब्धि की तरह महसूस होती है। इस वरीयता के साथ-साथ कुछ स्वतंत्रता भी प्राप्त हुई थी। अब ज़्यादा स्वतंत्रता थी समय की, अपना सोचा कुछ कर पाने की। शारीरिक श्रम अब थोड़ा कम हो गया था और अध्ययन कार्य बढ़ गया था। शाम का समय अब मैं नियमित रूप से अपने जिम रूटीन और बॉडी बिल्डिंग को दे पाता था और क़रीब छः से आठ महीनों के अल्प समय में ही मैं भीड़ में अलग दिखने लगा था। लोगों की नज़रें अब मुझपर अटकने लगी थीं।अलग और अच्छा दिखने का गर्व और अहंकार मिश्रित भाव सदा चेहरे पर रहने लगा था। अब बाल भी चपाती-कट न लेकर, छोटे किंतु सामान्य तरीक़े से रखना पर्याप्त था। अब सप्ताहांत में कैम्पस से बाहर जाने के लिए वर्दी की आवश्यकता भी नही थी। प्रशिक्षण का सबसे कठिन दौर भी गुज़र चुका था। कुल मिलाकर फ़ौजी जीवन अब कुछ-कुछ सामान्य हो चला था।


प्रारम्भिक प्रशिक्षण का एक वर्ष इतने कठोर श्रम का समय रहा की कभी एक क्षण के लिए भी अपनी पिछली ज़िंदगी के बारे में सोचने का अवसर ही नहीं मिल पाता था। वास्तव में इस एक साल का सारा प्रशिक्षण इस विशेष बात को ध्यान में रख कर ही संयोजित किया गया था कि हमें इतना अवकाश ही ना मिले कि हम अपने व्यक्तित्व को बदलने के अलावा किन्ही और चीज़ों पर विचार कर सकें। जीवन में आगे चल कर मैं इस बात की महत्ता को वास्तव में समझ सका और स्वीकार भी किया। एक सामान्य नागरिक या असैनिक युवक को एक शारीरिक और आत्मिक बल से परिपूर्ण सैनिक में बदल पाने की प्रक्रिया का और कोई दूसरा विकल्प हो भी नही सकता। इस सारे प्रशिक्षण को मैं एक नारियल की तरह देखता हूँ। बाहर से अत्यंत कठोर, किंतु भीतर अमृततुल्य जल और मीठा फल। कठोर नियम, कठोर श्रम, कठोर दंड, कठोर भाषा, किंतु भीतर से एक आत्मीय मित्र जैसा प्रशिक्षक जो समय पड़ने पर हमें हर दुःख और संकट से बचाने को तत्पर रहता था। सुबह चार बजे की दौड़ से शुरू होने वाले श्रम का दौर जब रात 10 बजे बिस्तर पर औंधे मुँह गिर जाने पर ख़त्म होता था, तब होश ही कहाँ रहता था कुछ सोचने समझने का। इतने पर भी कई बार यह विचार मन में आ ही जाया करता था कि कहाँ आ फँसा, और तब विचारों की एक तेज और संक्षिप्त सी शृंखला मुझे अपने अतीत में ले ही जाती थी और अचानक से मैं एक दोराहे पर आ खड़ा होता था, किंतु तब पता चलता था की विकल्प लगभग न के बराबर थे मेरे समक्ष।


माँ का चेहरा मुझे याद नहीं, केवल दो वर्ष का ही तो था मैं जब वो चल बसी थीं। इतनी छोटी आयु की स्मृतियाँ लगभग मिट सी जाती हैं समय के साथ, हालाँकि तीन वर्ष की आयु के बाद की सारी स्मृतियाँ काफ़ी साफ़ हैं मेरे ज़ेहन में। फ़ोटो खिंचवाने का प्रचलन उन दिनों वस्तुतः कम ही था, और सबसे नज़दीक का स्टूडीओ भी तो लगभग 15 मील दूर रहा होगा। यूँ भी, कई बार उचित समय की प्रतीक्षा में हम कुछ ऐसे कार्य कभी नहीं कर पाते जिनकी अनिवार्यता हमें जीवन भर सालती रहती है। उसके बाद हम चाहे कितने भी सजग हो जाएँ, जो छूट जाता है वो छूट ही जाता है, जो हम गवाँ देते हैं उसकी भरपाई कभी नहीं हो पाती है। फिर नियति कहाँ किसी के लिए रूकती है। हालाँकि बचपन में खिंचवाए गए कुछ-एक फ़ोटो थे परिवार के जो बाबूजी की अलमारी में बंद रहते थे किंतु वह सब माँ के चले जाने के बाद ही खिंचवाए गए थे। जब मैं इतना बड़ा हो गया कि जीवन की उलझनों को पहचानने लगूँ, तब मेरे द्वारा माँ के बारे में पूछे गए प्रश्नों के उत्तर देने को बाध्य हो जाते बाबूजी, और तब अतीत की घटनायें कभी शब्द बनकर उनके कंठ से बहतीं और कभी अश्रु बनकर आँखों से। बड़े भाइयों ने सब देखा-सुना था और उन्हें सब याद भी था। अतः कुछ घटनाओं का विस्तार उन लोगों की अपनी-अपनी स्मृतियों के अनुरूप भी मुझ तक पहुँचा था। उत्तरप्रदेश के एक छोटे से गाँव में आरम्भ हुआ मेरे पिता का जीवन अभावों से भरा रहा। वो तीन भाइयों में सबसे छोटे थे। खेती इतनी कम थी कि केवल उसके बल पर जीवन चल पाना कठिन था। खेती का लगभग सारा कार्य उनके निरक्षर मँझले भाई ही सम्भालते थे। उनका परिवार भी काफ़ी तेज़ी से बढ़ रहा था। पिताजी के सबसे बड़े भाई आठवीं तक पढ़े थे। दुर्भाग्यवश वह जीवन भर निःसंतान ही रहे, किंतु मेरे पिता को उन्होंने पुत्रतुल्य प्रेम दिया, अपना वरदहस्त उनके सर पर रखा, और ज़्यादा से ज़्यादा शिक्षा प्राप्त करने के लिए उन्हें प्रेरित किया और हर तरह का सहयोग भी दिया। परिणामस्वरूप, मेरे पिता उच्च शिक्षा प्राप्त करने में सफल हो सके और अध्यापन कार्य में लग गए। इधर पिताजी के विवाह के बाद हम पाँच भाइयों और एक बहन का जन्म भी हो चुका था। एक भाई की असामयिक मृत्यु के बाद हम चार भाई ही रह गए थे। बहन के बाद मैं चौथे नम्बर पर था। मेरे बाद मेरा छोटा भाई था जो मुझसे डेढ़ वर्ष छोटा था। जीवनयापन के अन्य विकल्पों पर विचार करने की आवश्यकता अब तीव्रतर होने लगी थी। मेरे बाबा (पितामह) पहले से ही गाँव छोड़ चुके थे और कलकत्ता (अब कोलकाता) में कोई छोटी-मोटी नौकरी कर रहे थे। उनका अफ़सर एक अंग्रेज था जो उन्हें बहुत मानता था और हमेशा पंडितजी कह कर सम्मान दिया करता था। उसके ही आश्वासन पर बाबा ने अपने सबसे बड़े पुत्र (पिताजी के सबसे बड़े भाई जिन्हें मैं दादा कहा करता था) को कलकत्ता बुला लिया था और अपनी ही कम्पनी में क्लर्क के पद पर लगवा लिया था। सरकारी नौकरी थी। दादा अब अपनी धर्मपत्नी के साथ, जिन्हें मैं माई कहता था, कलकत्ता में ही रहने लगे थे।


फिर अचानक एक रात की उस उथल-पुथल ने हमारे जीवन के सारे समीकरण को बदल कर रख दिया। मेरे पिताजी, जिन्हें मैं बाबूजी कहता हूँ, घर से 20 मील दूर अपने स्कूल के पास ही अपनी बहन के घर पर रहते थे और सप्ताह के अंत में घर आया करते थे। उस दिन भी वो घर पर नहीं थे। शाम को अचानक शुरू हुई खूनी पेचिस से रात भर लड़ते-लड़ते अंततः सुबह चार बजे की ब्रम्हबेला में माँ ने दम तोड़ दिया था। बाबूजी के आ पाने तक रूक नही पायी थीं वह। टूटी-फूटी साइकिल ही एकमात्र साधन थी उस जमाने में। फिर अंधेरी रात, गाँव की टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियाँ, मेड़ें, कच्चे रास्ते, और कुछ दुर्भाग्यपूर्ण घटित हो जाने का सम्भावित डर, “ईश्वर न करे यदि पत्नी को कुछ हो गया तो!”, पाँच बच्चों का अकेले लालन-पालन करने का भयपूर्ण काल्पनिक बोझ, इन सबने उस 20 मील की दूरी को जैसे 200 मील की कर दिया हो। समाचार मिलते ही दौड़ पड़े थे वो, किंतु रास्ता जैसे कटता ही न हो, ख़ासा तंदुरुस्त होते हुए भी पैरों में जैसे जान ही न लगती हो। शरीर हमेशा ही मन की शक्ति से संचालित होता है, किंतु भय मन को क्षीण कर देता है, अन्यथा अर्जुन जैसे योद्धा के हाथ से गांडीव न छूटता। पहुँचते-पहुँचते छः बज ही गए थे। अंतिम मुलाक़ात न हो सकी पत्नी से। निढाल होकर गिर पड़े थे वे, जैसे होश ही न हो।


जीवन की क्रूरता का प्रमाण हमें यूँ तो अपने आस-पास अक्सर देखने को मिलता ही रहता है, किंतु वह क्रूरता जब स्वयं भोगनी पड़े तो उसकी वास्तविक तीक्ष्णता का अनुभव अत्यंत कष्टदायक होता है। केवल 34 वर्ष की आयु में उन्होंने अपनी पत्नी को खो दिया था और मैंने सिर्फ़ दो वर्ष की आयु में अपनी माँ को। छोटा भाई तो गोद में ही था, केवल छः महीने का। टेलीग्राम पाकर कलकत्ता से गाँव पहुँचने में बाबा, दादा और माई को लगभग पाँच-छह दिन लग गए थे, किंतु तब तक बाबूजी माँ को मुखाग्नि दे चुके थे, चिता जल कर ठंडी भी हो चुकी थी जिसमें उनका लगभग सर्वस्व स्वाहा हो चुका था, परंतु उसकी आग जीवन भर उनके हृदय को जलाने वाली थी और पल-प्रतिपल उनके अस्तित्व को स्वाहा करने वाली थी। सारे स्वप्न भस्म हो राख हो चुके थे, जीवन-रथ अब एक पहिए का हो चुका था, कैसे चलेगी गाड़ी, यही प्रश्न सुरसा सा मुँह बाये सामने खड़ा था। जैसे उन्होंने केवल अपने पत्नी की ही अंत्येष्टि नही की थी, बल्कि अपने सौभाग्यों की भी अंत्येष्टि कर दी थी। कैसा प्रारब्ध था यह, किन दुष्कर्मों का फल, यह जान पाना मनुष्य के वश में कहाँ होता है? किमकर्तव्यविमूढ सा, ठगा सा खड़ा केवल साक्षी ही होता है वह उन घटनाक्रमों का, बस भोगने को विवश।


कहते हैं कि हर समस्या समाधान का एक लिफ़ाफ़ा भी साथ ले आती है, हाँ उस समाधान को स्वीकार करना या ना करना स्वयं पर निर्भर करता है। मुझे और छोटे भाई को निःसन्तान दादा और माई अपने साथ कलकत्ता ले गए। शायद समय की यही माँग भी थी, और कहीं न कहीं इस कृत्य में उन दोनों को अपने संतानहीन अधूरे जीवन को पूर्ण कर पाने का अवसर भी दिखाई दिया था। फिर कुछ ही समय के अंतराल पर बाबूजी को भिलाई, मध्यप्रदेश (अब छत्तीसगढ़), में प्राध्यापक के पद पर नियुक्ति का प्रस्ताव-पत्र मिला। सम्भवतः सामयिक उपचार के अभाव में पत्नी को खो देने की पीड़ा, गाँव का तंगहाली का जीवन, और मँझले भाई का असौहर्द्रपूर्ण रवैया और उपज का सब कुछ स्वयं दबा जाने का लोभ, इन सब की वजह से उन्हें गाँव से जैसे विरक्ति हो गयी थी। जो खो दिया था उसकी पीड़ा तो जीवन भर की थी और असहनीय भी थी, किंतु जो पास बचा रह गया था उसे सम्भाल पाने के दृढ़ कर्तव्यबोध के कारण उन्होंने गाँव छोड़ देने का निश्चय कर लिया। अब अपनी संतानों का भविष्य बनाना ही उनका एकमात्र ध्येय रह गया था। शायद यही अपने पत्नी के प्रति उनकी उचित श्रद्धांजलि होती। बाक़ी तीन संतानों को लेकर वो भिलाई आ गए थे, जीवन के एक पहिए की गाड़ी को अकेले ही खींचने का कठोर संकल्प लेकर; और कोई उपाय भी न था। दूसरे विवाह के कितने ही प्रस्तावों को दृढ़ता से अस्वीकार कर दिया था उन्होंने। पत्नी से किए अनन्य प्रेम ने और उसके द्वारा प्रदत्त संतानों के प्रति उनके अपने वात्सल्य ने हमेशा उन्हें अपने निश्चय पर अडिग ही रखा। वह केवल अपने सुख के लिए संतानों के जीवन को और विषाक्त नही करना चाहते थे।


ऐसा कब होता है कि जैसा सोचा जाए, जीवन उसी तरह चले? उसकी अपनी ढेरों शर्तें होती हैं, नख़रे होते हैं, फिर भी वह सरकने तो लगी ही थी धीरे धीरे। जब मैं पाँच साल का हुआ तो बाबूजी मुझे कलकत्ते से वापस भिलाई ले आए मेरी शिक्षा शुरू कर सकने के लिए। वह एक अत्यंत ही कठिन समय था दादा और माई के लिए, मुझे स्वयं से अलग कर पाना उन्हें असम्भव सा प्रतीत हुआ। छोटा भाई उनके पास ही रहेगा, केवल इस शर्त पर उन दोनों ने मुझे विदा किया। हम सब बड़े होने लगे थे आहिस्ता आहिस्ता। अजीब सा जीवन था वह बिन माँ के बच्चों का, बाबूजी भी कितनी ही कोशिशों के बावजूद माँ और बाप दोनों की ज़िम्मेदारी निभा पाने में स्वयं को अक्सर असमर्थ पाते थे। कितना भी करते, असंतुलन रह ही जाता और प्रत्यक्ष भी होता रहता। ख़ैर, कहते हैं न कि “आपन हाथ जगन्नाथ”। परिस्थितियों ने हमें समय से पहले ही बड़ा कर दिया था। यूँ तो किसी अन्य के चरित्र का विश्लेषण हमारी अधिकार-सीमा से बाहर होता है और होना भी चाहिए, किंतु जब उस “अन्य” के कर्मों की परछाईं अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर आपके जीवन को बाधित करने लगे, तब यह विश्लेषण आवश्यक हो ही जाता है। बड़े भाई साहब शहर का माहौल पाकर किसी उन्मत्त घोड़े की तरह बेलगाम जीने लगे थे। उन्हें न पढ़ाई से मतलब था और न परिवार से। छोटे भाई बहन क्यों पैदा हो गए उनका एकक्षत्र हिस्सा बँटाने के लिए, इस बात का उन्हें हमेशा संताप रहा। क्रूरता और घृणा उनके चरित्र का अभिन्न अंग थी। पिता का सहारा बने, यह भावना तो कभी पनपी ही नही उनके मन में। स्वार्थपूर्ण जीवन जीने में और मौक़ा मिलते ही छोटों का हिस्सा छीन कर खा लेना और उन्हें बुरी तरह से पीट-पाट देने में ही उनको सुख था। यहाँ तक कि दीदी को भी नहीं छोड़ते थे। बाबूजी से शिकायत न हो इस बात की धमकी अलग से देते रहते थे।अतः हम स्वयं भी पलते-बढ़ते रहे और उन्हें भी पालते रहे। मैं यह स्वीकार करता हूँ कि यह अधूरा सच भी हो सकता है, किंतु जो देखा, जाना, और महसूस किया उसे न लिखने की कायरता मुझसे न हो सकेगी। कम से कम मेरे हिस्से का सच तो यही था।


दीदी बड़ी होने लगी थीं। उधर छोटे भाई को भी बाबूजी 13-14 वर्ष कलकत्ता में छोड़ने के बाद भिलाई ला चुके थे। परिवार को एक स्त्री की आवश्यकता महसूस होने लगी थी। अतः हारकर बाबूजी को बेरोज़गार और बेलगाम बड़े पुत्र का विवाह कर देने के अलावा कुछ नही सूझ रहा था। आशा थी कि शायद इससे स्थिति कुछ सुधरे। किंतु “आपन सोचा होत नही, हरि का सोचा होये”। वैसे भी वैकल्पिक समाधानों की सफलता वस्तुतः भाग्य पर ही आधारित होती है और उससे मिलने वाला संतोष भी अत्यंत क्षीण ही होता है। जो पुत्र पिता का स्थान ले सकने का साहस न कर सके, उसकी अर्धांगिनी से माता-तुल्य व्यवहार की अपेक्षा केवल अवसादों और अपवादों को ही जन्म दे सकती है। यह विवाह किसी विस्फोटक से कम सिद्ध न हुआ परिवार के लिए। दूसरा विस्फोट दूसरे बड़े भाई अर्थात् मँझले भाई ने किया किसी क्रिस्चन लड़की से चुपचाप कोर्ट में विवाह करके। वैसे तो सही-ग़लत, अच्छा-बुरा अवश्य ही अत्यंत सापेक्ष पद हैं, परस्पर परावलंबित, और जीवन में अपना-अपना स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकार भी सबको है, किंतु दुर्भाग्यवश हमारे निर्णयों से उठी धूल हमसे जुड़े लोगों की आँखों में पड़े बिना नहीं रहती। उन निर्णयों का भूचाल अक्सर अपने ही घर की दीवारों को ध्वस्त कर अपनों को ही नग्न करता है। सामाजिक प्रतिष्ठा का उतना मोह बाबूजी को नहीं था जो धूमिल हो रही थी, जितना दुःख उन्हें उन स्तम्भों के सरक जाने का था जो परिवार को शक्तिशाली और दृढ़ बना सकती थीं। एक शुद्ध ब्राह्मण रूढ़िवादी परिवेश से आने वाले बाबूजी के विश्वास पर यह किसी कुठाराघात से कम न था। जिन मनोकामनाओं को लेकर गाँव छोड़ शहर आए थे, वो सारी मिट्टी में मिलती दिखाई देने लगी थीं। अपने जीवन भर के त्याग और तपस्या का यह फल पाएँगे, कभी स्वप्न में भी नही सोच सके थे। मृत पत्नी को दी जाने वाली श्रद्धांजलि अब सम्भवतः अधूरी सी प्रतीत होने लगी थी। परिवार का माहौल विषाक्त हो चुका था, विघटन अवश्यम्भावी था। ऐसे में कुछ अच्छा घटित हो पाने की सारी सम्भावनाएँ बेमानी थीं।


इस तरह अतीत के जीवन को, भविष्य की सभी सम्भावनाओं को, और कलुषित और कलहपूर्ण पारिवारिक परिवेश को ध्यान में रख कर पिता द्वारा दिए गए सलाह, या यूँ कहूँ उनकी मूक आदेश-तुल्य सहमति का सम्पूर्ण आँकलन करने पर मैं अपने इस नए जीवन से संतुष्ट होने को विवश था।


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आज शनिवार था, अर्थात् आधे दिन का बुक-आउट, रात 10 बजे तक वापस आने की छूट, और सिविल ड्रेस पहनने की स्वतंत्रता। 


“पाण्डेय, चलोगे क्या आज?” भवानी की झिझक में प्रार्थना के भाव स्पष्ट परिलक्षित हो रहे थे। वह एकदम तैयार होकर आया था। मैंने घड़ी देखी, शाम के छः बज रहे थे, मैं जिम जाने की तैयारी में था। वह आकर मेरे बिस्तर पर बैठ चुका था आँखों में एक गहन आस लिए कि शायद आज उसे मेरा साथ मिल जाए। न जाने क्यों आज उससे बहस करने का मेरा मन नहीं हुआ। मैं इस मामले में पूर्णतः अनुभवहीन था, और शायद प्रथम अनुभव पाने की लालसा मेरी कमज़ोरी रही हो जो कहीं न कहीं मेरे अंतःकरण में किसी चोर की भाँति विराजमान थी। हम जितनी ईमानदारी दूसरों के प्रतीत होने वाले अनुचित व्यवहार और कमियों का विश्लेषण करने में बरतते हैं, उतने ईमानदारी और साहस का उपयोग स्वयं के विश्लेषण में नहीं कर पाते। स्वयं का साक्षात्कार एक अत्यंत कठिन प्रक्रिया है, कई बार एकदम से लज्जित कर देने वाली भी, किंतु स्वयं से भागना सम्भव नही। हालाँकि, जीवन के एक काल्पनिक सुखद अनुभव को इतने विकृत जगह से प्राप्त करने की इच्छा मेरे अंदर केवल एक अपराधबोध को ही जन्म देती रही थी, और मैं हमेशा ही इसका विरोध करता रहा था पूर्व के अनगिनत आपसी बहसों के दौरान। फिर कहीं न कहीं पिता के कठोर ब्रम्हचर्य का जीवन भी उदाहरण बनकर उन्मुक्त होने से रोक देता था। किंतु जहां चोर बैठा हो वहाँ कमज़ोरी आ ही जाती है, ऊपर से उम्र का बहाव, अच्छा दिखने और नौकरीशुदा होने का अहंकार, और एक फ़ौजी का निडर कलेजा, अंततः सब मिलाकर मुँह से हाँ निकल ही पड़ा उस दिन।


“ठीक है, चल आज, मैं भी देखूँ कितना मज़ा आता है, पर पैसे मैं नहीं दूँगा!” मैंने अपनी ओर से एक कमजोर सा अंतिम प्रयास कर ही डाला यह सोचकर कि शायद पैसे के नाम पर भवानी चलने का विचार त्याग दे, पर वस्तुतः वह भी ठान कर ही आया था। अकेले जा पाने की उसकी हिम्मत नही हुई थी कभी। वैसे भी रेड-लाइट एरिया में हमारा जाना क़ानूनन प्रतिबंधित था। यह भी कैसी विडम्बना है कि किसी का साथ मिले तो दुष्कर्म भी सत्कर्म सा ही प्रतीत होने लगता है, साहस भी सहसा बढ़ जाता है; और फिर वासना साधे कब सधी है? सुर, असुर, मुनि या मनुष्य, किसी से भी नही। जिन्होंने कभी यदि साध लेने की उद्घोषणा की भी हो तो उसमें केवल दमन का दर्प ही प्रतिबिंबित होता है। अतिशयोक्ति न होगी यह कहना कि सारे पापों के मूल में है वासना। सम्भवतः यही कारण है कि संसार के हर समाज को वैवाहिक व्यवस्था को अपनाना ही पड़ा, फिर भी सृष्टि के आरम्भ से ही स्त्रियों का यौन शोषण होता रहा है और वैश्यावृत्ति की अनिवार्यता कभी समाप्त न हो सकी। साथ पाने की सम्भावना देखते ही वह तपाक से बोल पड़ा।

“ठीक है, तू बस चल!”


तांबरम, मद्रास (अब चेन्नई) का एक छोटा सा क़स्बेनुमा क्षेत्र है जहाँ हमारा प्रशिक्षण केंद्र था। यूँ कह लें की एयर फ़ोर्स की वजह से ही इस जगह का अस्तित्व था। मुख्य शहर के अंतिम छोर पर स्थित, दो तरफ़ कई छोटी-छोटी पहाड़ियों और जंगलों से घिरा, प्राकृतिक रूप से सुंदर, प्रशिक्षण के लिए उपयुक्त ही था यह स्थान। हालाँकि, बंगाल की खाड़ी से आने वाली हवा की आर्द्रता और उसमें नमक का एक बड़ा प्रतिशत शरीर को तुरंत ही चिपचिपा कर देते थे । पर धूप कितनी भी बेचैनी पैदा करे, कुछ क्षण किसी वृक्ष के नीचे खड़े होते ही हवा पसीने को सुखा कर  एक सुखद ठंडक का अनुभव कराती थी और सफ़ेद नमक सूख कर अपने आप झड़ जाता था। शामें वहाँ की अत्यंत मधुर होती थीं और दिन भर की सारी थकान को छू-मंतर कर देती थीं। मेन गेट से निकल कर हमने किराये की साइकिल उठाई और धड़कते दिलों के साथ किसी तरह छुपते-छुपाते, चोर नज़रों से इधर-उधर देखते बचते हम अपने उस चिर-प्रतीक्षित स्वर्ग सा प्रतीत होने वाले नारकीय गंतव्य तक आख़िर पहुँच ही गए थे।


भवानी का तो पता नही, पर मेरे अंदर एक अजीब सी बेचैनी और अपराधबोध घर करने लगी थी। पर अब चूँकि आ ही गए थे तो जो भी परिस्थिति बने उसका सामना तो करना ही था। अजीब दृश्य था वहाँ का। 14 से लेकर शायद 44 वर्षों की लड़कियाँ और स्त्रियाँ हाथों के इशारों से, और कई बार तो आवाज़ देकर अपनी ओर बुला रही थीं। कुछ समझ में नही आ रहा था किधर जाएँ। फिर एहसास हुआ की यह सब किसी भूल-भूलैया की तरह ही है, जहाँ भी जाओगे, घूम-फिर कर सब जगह एक ही चीज़ मिलने वाली थी। बस एक जुआ ही खेलना था। सो, हम एक दूसरे का हाथ पकड़ एक तरफ़ हो लिए। घर की चौखट लाँघते ही एक मोटी काली सी प्रौढ़ा ने हमारा स्वागत किया, स्वागत क्या, रास्ता रोक लिया। हमारे लिए भाषा भी एक समस्या थी। उसने तमिल में कुछ पूछा शायद। फिर हमें थोड़ा ध्यान से देखने के बाद टूटी-फूटी हिंदी बोलने लगी। सम्भवतः व्यवसाय की ज़रूरतों ने उसे हिंदी सीखने पर मजबूर कर दिया होगा। फिर कहीं न कहीं एयर फ़ोर्स के लोगों के लिए इनके दिलों में थोड़ा सम्मान भी था, कारण कुछ भी रहा हो, देशभक्ति का या ज़्यादा व्यवसाय उन पर ही निर्भर होने का। उसने हमें झुककर नमस्ते किया। हम पहली बार आए थे इस बात को तुरंत महसूस कर लिया था उसने। रेट के बारे में बताया जिसे सुनकर मेरी आत्मग्लानि और तीव्र होने लगी थी। केवल 25-30 रूपये में शरीर बिकते थे वहाँ। वैसे अब सोचता हूँ तो लगता है वह भी कम न थे जब हमारा वेतन ही 400-500 रुपए हुआ करता था। स्त्री की अस्मिता उसके अस्तित्व की आत्मा होती है जिसका कोई मोल नही हो सकता, किंतु किसी भी वस्तु के मूल्य का आँकलन और विघटन समय के तराज़ू पर स्वेच्छा-अनिच्छा, आवश्यकता-अनावश्यकता, उपलब्धता-अनुपलब्धता, सम और विषम परिस्थितियों के बाँटों से होता है। जो बहुतायत से उपलब्ध हो वह मूल्यहीन हो ही जाता है। प्रकृति-प्रदत्त जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक पंच-तत्व बहुतायत से उपलब्ध होने के कारण ही हम मूढ़ मनुष्यों के लिए मूल्यहीन होते चले गए और हमने हमेशा उनका दुरुपयोग ही किया। पाँच लड़कियाँ लाइन में खड़ी थीं, चुनाव हमारा था। एयर फ़ोर्स के लोगों के लिए समय की पाबंदी नहीं के बराबर थी। भवानी की बाँछे खिल गयी थीं शायद इतना कम रेट सुनकर। बिना समय गँवाये उसने एक लड़की का हाथ पकड़ा और तीर की तरह ग़ायब हो गया। यह सम्भवतः स्त्री के साथ उसके अनुभव का ही कमाल रहा होगा। चार स्त्री शरीर वहाँ अब बच गए थे मेरे चुनाव के लिए जिनमें दो तमिलीयन, काली किंतु तीखे नक़्श वाली 16-18 साल की लड़कियाँ थीं। एक शायद आसाम की या नेपाल की रही होगी, गोरी किंतु छोटी ठिगनी सी। अंत में एक लगभग 32-34 साल की सुंदर, गोरी, सुगठित शरीर वाली स्त्री बच गयी थी। नयन-नक़्श से बंगाली ही थी, बचपन कलकत्ता में बीतने की वजह से बंगालियों की पहचान मुझे थोड़ी जल्दी हो जाती थी। फिर न जाने क्यों एक खिंचाव सा भी महसूस किया था मैंने उसके प्रति। किंतु उस खिंचाव को अपने कुतर्कों से कुचलते हुए मैं उसकी तरफ़ बढ़ गया। मेरे पास और कोई विकल्प भी नहीं था। वह मुझे एकटक देखते हुए कुछ याद करने की कोशिश कर रही थी, ऐसा मुझे प्रतीत हुआ।


वह मुझे अपने कमरे में ले गयी। उस छोटे से कमरे को तेज ट्यूबलाइट के प्रकाश ने दिन की तरह प्रकाशित कर दिया था। छोटा पर क़रीने से सजा हुआ कमरा। एक छोटी सी बंद खिड़की जो शायद बाहर के सड़क पर खुलती होगी, कोने में रखी लकड़ी की एक लगभग छह फ़ुट की आलमारी और उस पर रखा हुआ एक ऐल्यूमिनियम का बक्सा, एक लकड़ी की कुर्सी जो मेज़ के साथ लगी थी, और एक डबल-बेड से कुछ कम साइज़ का बिस्तर। बस इतना ही कुछ उसका संसार था। किंतु सबसे अधिक जिस चीज़ ने मेरा ध्यान आकर्षित किया वह था दीवाल में बना हुआ लगभग 3x2 फुट का आलमारीनुमा स्थान जो एक अत्यंत ही झीने पर्दे से आधा खुला आधा ढका था। अंदर स्थापित थीं माँ दुर्गा और काली की सुंदर मूर्तियाँ जो संभवतः अभी कुछ देर पहले ही पूजी गई थीं। उनके सामने जलती अगरबत्तियों की ख़ुशबू और हल्के धुएँ से वह छोटा सा कमरा महक रहा था। उन मूर्तियों के बग़ल में दो-तीन ग्रंथों सी दीखने वाली पुस्तकें रखी थीं। वहाँ रखी थीं तो अवश्य ही रामायण, गीता या इसी तरह की धार्मिक पुस्तकें ही रही होंगी। उस दिन मुझे अहसास हुआ कि पूजा, उपासना या अध्यात्म का आजीविका के लिए किए जाने वाले व्यवसाय से कोई सम्बंध नही होता। मन पवित्र हो तो आत्मा को उच्चता प्राप्त हो ही जाती है। मन की निर्मलता कमल के उन पत्तों की तरह होती है जिस पर गिर कर भी जल उसे छू नहीं पाता। जीवन साधना बन जाए तो आस-पास की गंदगी और दुर्गंध से ऊपर उठ जाता है मनुष्य। उसने मुझे कुर्सी पर बिठा दिया और आलमारी खोलकर पूछने लगी, “बाबू, आप क्या लेंगे, रम या व्हिस्की! वैसे मैं जानती हूँ फ़ौजी लोग रम ज़्यादा पसंद करते हैं,” हल्के बंगाली लहज़े में उसने कहा। वह अब भी मेरे चेहरे को एकटक देखती हुई कुछ पढ़ने की कोशिश में लगी हुई थी।

“नहीं, कुछ नहीं, मैं पीता नहीं हूँ।” मैंने सम्भवतः पहली बार उस चेहरे को ध्यान से देखते हुए उत्तर दिया। वह लहज़ा कुछ जाना पहचाना सा लगा था। कहीं कोई बिजली सी कौंध रही थी मेरे हृदय में भी। परंतु कुछ क्षणों के ही अंतराल में यह दूसरी बार था जब मैंने अपने भीतर उठते हुए कोलाहल को नज़रंदाज़ कर दिया था।

“कोई बात नहीं बाबू।” वह आकर मेरे सामने बिस्तर पर बैठ गयी। उस छोटे से कमरे में हमारे बीच केवल एक हाथ की दूरी ही बची थी। उस दिन जैसे प्रकाश में हम एक दूसरे के चेहरों की एक-एक लकीरों को पढ़ सकते थे। वह बिना किसी प्रसाधन के भी काफ़ी सुंदर लग रही थी, किंतु जो उत्तेजना रातों को एक स्त्री की केवल कल्पना मात्र से उठती थी, वो इतनी सुंदर स्त्री के सामने बैठे होने और आसानी से उपलब्ध होने पर भी महसूस नहीं हो रही थी मुझे। मेरे अंदर उठते हुए झंझावातों को पढ़ने की कोशिश में उसने अचानक जैसे कुछ पा लिया था।

“बाबू, बुरा नहीं मानना, वैसे तो इस धंधे में हम किसी का नाम नहीं पूछते हैं, पर क्या मैं आपका नाम पूछ सकती हूँ?” उसने अजीब सी झिझक और विनम्रता के साथ कहा।

“——“ मैंने कोई जवाब नहीं दिया।

“अच्छा, आप कभी कलकत्ते में रहे हैं?” उसने पूछने का क्रम जारी रखा।

“हाँ, क्यों?” मैंने लगभग चौंकते हुए पूछा।

“आप लोग खिदिरपुर में रहते थे?”

“हाँ।”

“आपका नाम शंकर है?”

“हाँ, पर आप यह सब कैसे जानती हैं?” मेरा आश्चर्य अब सातवें आसमान पर था।

“आप लोग शमशेर सिंह की बाड़ी में रहते थे, है न!” उसकी खोज पूरी हो चुकी थी। मैंने ध्यान से देखा, उसके चेहरे पर अब ममता के भाव खुल कर उभर आए थे।

“इसे अपना दुर्भाग्य कहूँ या सौभाग्य कि तुमसे इतने वर्षों के बाद मुलाक़ात हो रही है। स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि फिर तुम्हें देख पाऊँगी। किंतु दुःख भी है कि आज तुम स्वयं चलकर ऐसी गंदी जगह आए हो। जब छोटे से थे तो मैं तरस जाती थी तुम्हें जी भरकर अपनी गोद में खिलाने को, और तुम भाग जाया करते थे मुझसे हाथ छुड़ा कर और रोते हुए अपनी माई से शिकायत करते थे कि गंदी औरत ने छू लिया।” वह आप से तुम पर आ गयी थी और बोलती चली जा रही थी जैसे वर्षों का रुका हुआ बाँध टूटा हो। ममता को समय का अंतराल नहीं मिटा सका था। अपने पुत्र की भाँति उसने मुझे अपने हृदय में बसा लिया होगा, शायद यही कारण था कि उसने मुझे इतने वर्षों के बाद भी और मुझमें हुए आमूलचूल बदलावों के बावजूद भी पहचान लिया था। उसके प्रेम पर मेरा कोई वश नहीं था। आज जीवन के उत्तरार्ध में, समस्त मानवीय भावनाओं को, आधा-अधूरा ही सही, जीने लेने के बाद, मुझे प्रेम की एक ही व्याख्या सम्पूर्ण लगती है कि सच्चा प्रेम हमेशा एकतरफ़ा ही होता है, अपने आप में पूर्ण, उसे पूर्ण होने के लिए पूरक की आवश्यकता नहीं होती। किसी के सहमति या अनुमति की भी आवश्यकता नहीं होती। वह तो बस अनवरत बहता है चित्त की गहराइयों में, शांत, स्वयं-स्वीकृत, मुक्त-उन्मुक्त। प्राप्य-अप्राप्य की कुंठा से मुक्त, स्थितप्रज्ञता या वैराग्य की पराकाष्ठा है प्रेम। किन्ही अर्थों में संभवतः परमसत्य या परमेश्वर का रूप है प्रेम। वास्तव में उसने तो मुझे बाहर ही देखते ही पहचान लिया होगा, किंतु बस पूरी तरह से आश्वस्त हो जाना चाहती रही होगी। उसकी बातें सुनकर मैं अपने अतीत में लौटने लगा था। कलकत्ता में बिताए बचपन के वो तीन वर्ष मेरी आँखों में किसी तस्वीर की भाँति तैरने लगे थे। सब कुछ तो नहीं पर बहुत कुछ साफ़-साफ़ दिखने लगा था।


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यादें परत-दर-परत खुलने लगीं। वह संकरी सी लम्बी गली, शायद बहुत छोटी सी ही रही होगी, पर बचपन में लम्बी लगती थी, जिसका एक छोर शमशेर सिंह की बाड़ी में जाता था और दूसरा छोर खिदिरपुर के सड़क के फुटपाथ पर खुलता था। बाड़ी क्या थी, बस एक छोटा सा आँगन और उसके चारों तरफ़ मिट्टी की दीवारों से बने एक एक कमरे के कई मकान और खपरैल की छतें, हर घर का प्रवेश एक अत्यंत ही छोटे से बरामदे से होता था। आँगन के बीच में सीमेंट से बना एक बड़ा सा गमला और उसमें एक तुलसी का पेड़। आजीविका की तलाश में यूपी और बिहार से आए मज़दूरों का निवास स्थान था वह जो अपने पीछे एक बड़ा सा परिवार छोड़ आए थे, और उस परिवार की ढेर सी आशायें अपने साथ गठरी में बाँध कर ले आए थे यहाँ इतनी दूर, जीवन में कुछ कर पाने कि इच्छा लेकर। वह फुटपाथ इसी तरह की कई गलियाँ और कई बाड़ियाँ अपने सीने में छुपाए हुए था। बाड़ी के पिछले हिस्से में एक मोहड़ी (नाली) थी जिसे पार करते ही एक बड़ा सा तलाव (तालाब) था। छोटा ही रहा होगा, तब इतना बड़ा लगता था की उसके दूसरे किनारे हम केवल एक या दो बार ही गए थे। तलाव के चारों तरफ़ सीमेंट का फुटपाथ था जिसके एक तरफ़ तलाव के किनारे-किनारे खज़ूर के पेड़ थे और दूसरी तरफ़ कई तरह के फूलों के बड़े-बड़े पेड़।कलकत्ते की आर्द्रता भारी गर्म शामों में उस तलाव की सूखी घास पर बिछाई हुई पतली सी चद्दर पर लेटे-लेटे दादा जब पुराणों से लेकर अरब के ख़लीफ़ा तक की कहानियाँ सुनाते तो “फिर दादा? हूँ दादा!” करते करते कब सो जाया करते हम दोनों भाई, पता ही नहीं चलता था। सुबह-सुबह पलाश के पत्ते के दोनों में हलवा-कचौरी का नाश्ता, दादा का वह रेडियो सुनते-सुनते “आनंदोबाज़ार पत्रिका” पढ़ना, दादा की वो दो छड़ियाँ “समझावन-बुझावन” जिन्हें वे मुझे गणित के पहाड़े याद कराने के लिए इस्तेमाल करते थे, माई के दाल का वो छौंक जिससे पूरी बाड़ी महक उठती थी, सब याद आने लगे थे मुझे, वास्तव में ये सब भूल ही कहाँ पाया कभी। फिर दोपहर में वो भालू और बन्दर वाला मदारी का खेल, वो बाइस्कोप, वो शाम का चाय-मूड़ी का नाश्ता, वो नुक्कड़ के बंगाली बाबू के जलेबी, सेव और सिंघाड़े का स्वाद आज भी जीभ पर जैसे रचा-बसा हो।


बाड़ी से लगभग एक किलोमीटर पर ही गंगाजी बहती थीं। दादा रोज़ सुबह जब लाल-सफ़ेद छोटे चौकोर खानों वाला बंगाली अँगोछा पहनकर, हाथ में तांबे का लोटा लिए, घर से ही मंत्रों का जाप करते गंगाजी में डुबकी लगाने के लिए निकलते, तो अक्सर हम भी उनके साथ हो लिया करते थे। छोटा भाई दादा की गोद में चढ़ जाता और मैं उनकी उँगली पकड़कर उछलते-कूदते चल दिया करता। दादा की साख आस-पास के मोहल्लों में एक बड़े ही धीर-गम्भीर धर्म-पारायण व्यक्ति की थी। लोग उन्हें बड़े आदर से शास्त्रीजी कहा करते थे। दादा की घनी लम्बी मूँछें, माथे का चंदन का तिलक, सलीके से गाँठ बांधी हुई लम्बी चुटिया, और उनका हमेशा का धोती-कुर्ते वाला पहनावा उनके इस व्यक्तित्व को पूर्णतः सार्थक भी करते थे।


गंगाजी में स्नान कर वापस आते समय जैसे ही हम अपनी बाड़ी की गली में घुसने को होते, वैसे ही एक 18-20 साल की लड़की अक्सर दादा से मेरा हाथ छुड़ाकर मुझे खींच ले जाया करती। दादा असमंजस में पड़ जाया करते, किंतु कुछ कहते नहीं थे। बस धीरे से मुस्कुरा कर बाड़ी में चले जाया करते। मैं बस रोता रहता और वह मुझे चुप कराने में अपनी सारी ममता मुझ पर उड़ेल दिया करती। उतनी कम उम्र में भी ना जाने कहाँ से मेरे मन में ये बात घर कर गयी थी की वो और उसकी तरह की सभी स्त्रियाँ गंदी थीं। मैं बस उससे अपना हाथ छुड़ाकर भागने की कोशिश में ही रहता। उसके लाख खिलौने या लेमनचूस भी, जो वो शायद मुझसे केवल कुछ क्षणों का झूठा संतानसुख पा लेने की लालसा में ख़रीद लायी थी, मुझे वहाँ रोक नहीं पाते थे। कहीं गहरे में देखें तो बचपन बहुत निष्ठुर होता है, अपनी पसंद-नापसन्द या अपने स्वार्थ के प्रति अत्यंत कठोरता से समर्पित। भावनाओं की कमजोरी उम्र बढ़ने के साथ ही आती है। जब मैं उसके हाथों से छूटकर भागता हुआ घर आता तो रोते-रोते केवल एक ही बात रटता कि “वो मुझे क्यों छुई, वो मुझे क्यों पकड़ी?” दादा-माई के लाख समझाने पर भी मेरा बाल-मन कुछ भी समझने को तैयार नही होता। फिर समय के साथ मेरा प्रतिरोध कमजोर होता गया और मेरे नन्हे मन ने परिस्थिति से समझौता कर ही लिया, फिर भी पूर्णतः उसे स्वीकार तो नहीं ही कर सका था।


फिर एक दिन दादा-माई से पता चला कि भिलाई से मेरे बाबूजी आ रहे थे मुझे लेने। उस समय तक मुझे नहीं मालूम था कि बाबूजी कौन थे। एक अजीब सी आशंका, डर और कौतूहल ने बेचैन कर दिया था मुझे। दाद-माई से बिछड़ने का दुःख ज़्यादा था या अपने पिता से मिलने का सुख, इसका निर्णय कर पाना मेरे लिए उस उम्र में अत्यंत कठिन था। निश्चितता से अनिश्चितता की ओर का सफ़र हमेशा ही भयावह होता है। किंतु निश्चितता तो जड़ है, भाग्य सदैव ही अनिश्चितता की धरोहर होता है। जीवन के अनछुए रंग हमेशा संभावनाओं के इंद्रधनुष में ही खिल पाते हैं। मेरा आगे का जीवन किस रूप में मेरी प्रतीक्षा कर रहा था, इस बात से पूर्णतः अनजान था मैं। 


आज भी याद है बाबूजी का वह आकर्षक रूप जब पहली बार उन्हें देखा था मैंने। एक लम्बे-चौड़े सुंदर से व्यक्तित्व के मालिक, चेहरे पर विद्वता का तेज़, आवाज़ में एक अजीब सी खनक़, काले से कोट में किसी सिनेमा के हीरो की तरह अचानक से मेरे सामने आकर खड़े हो गए थे वो। जब मुझे अपनी गोद में उठाकर बड़े प्रेम से चूमा था उन्होंने, तो उस साढ़े-चार साल के बालक का सीना भी गर्व से चौड़ा हो गया था। ज़्यादा रुके नहीं थे वो, अगले दिन ही शाम की ट्रेन से निकलना था हमें। पूरी बाड़ी इकट्ठा हो गयी थी गली के छोर पर, हमें विदा करने। दादा हमारे साथ ही आ रहे थे स्टेशन तक छोड़ने। हम चलने को ही थे कि अचानक से उसी लड़की ने मुझे हाथ पकड़ कर एक ओर खींच लिया और बड़े प्रेम से चूमते हुए मेरे नन्हे से हाथ में एक रुपए का नोट दबा दिया। उसकी गीली आँखों में भरी ममता को शायद पहली बार मेरे बालक मन ने स्वीकार किया था उस दिन। वो पूर्णा ही थी।


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      “आप यहाँ कैसे?” आत्मग्लानि, असमंजस और आदर से सर झुक गया था मेरा, किंतु प्रश्नों के अनेकों झंझावात भी खड़े हो गए थे हृदय में। बहुत कुछ जानना चाहता था मैं।

“मैं एक बार और आया था कलकत्ता क़रीब छः-सात सालों के बाद, तब आप कहाँ थीं?”

“हम लोगों का जीवन इस ख़ाली बंद बोतल की तरह है बाबू,” उन्होंने टेबल पर पड़ी कल रात की ख़ाली हुई रम की बोतल की तरफ़ इशारा करते हुए कहा, “जो जीवन के समुद्र पर तैरती रहती है, डूबती नहीं, किस लहर के किस थपेड़े से किस किनारे लगेगी नहीं मालूम। लोग बस पीकर फेंक देते हैं सदा के लिए। हम ख़ाली ही रह जाती हैं। कभी कोई कचरे वाला ही उठाता है हमें फिर कहीं बेच देने के लिए।” वो आँखों में गहन शून्यता लिए कमरे की इकलौती खिड़की को आज शायद पहली बार खोलने का प्रयास कर रही थीं। बाहर का कोलाहल आज उनके अंतर्द्वंद को दबा पाने में अक्षम था। दूर आसमान में उदित पूर्णिमा का चंद्रमा संभवतः उनको कुछ साहस दे रहा था।

कुछ देर रुक कर उन्होंने जैसे अपने ऊबड़-खाबड़ जीवन को समेटा और लहूलुहान हुए मन के एक-एक काँटों को निकालना शुरू किया।

“तुम्हारे जाने के बाद सब कुछ पूर्ववत नहीं रह सका। यह जीवन मेरा चुना हुआ नहीं था, किंतु ममता की प्यास भी तो मेरी चुनी हुई नहीं थी, ईश्वर ने स्त्री को जननी होने की शक्ति दी है तो ममत्व की कमजोरी भी दी है, किंतु ये दोनों ही मिलकर उसे पूर्ण करते हैं। तुम्हारी अनुपस्थिति ने भीतर कहीं कुछ रिक्त कर दिया। यूँ तो जिस पर अपना कोई अधिकार ना हो, उसे क्या पाना और क्या खो देना। फिर भी, हर पतंग को उड़ने के लिए किसी ना किसी डोर से बँधना ही पड़ता है।”


“वैसे तो मेरी कहानी कोई ऐसी नहीं है जो युगों में कभी एक बार ही घटित होती हो, मेरे जैसी औरतों की लगभग एक सी ही होती है जीवन यात्रा, फिर भी जो स्वयं पर गुज़रे उसी दर्द को माप सकता है कोई, दूसरे पर गुजरी पीड़ाओं की गहराई हम कितनी ही ईमानदारी से नापने की कोशिश क्यों न करें, वह मनगढ़ंत ही होती है बाबू। नाथन यहीं मद्रास की किसी फैक्ट्री में काम करता था। मज़दूर था या क्लर्क कुछ साफ़-साफ़ कभी नहीं जान पायी मैं। कम्पनी उसे महीने में एक बार कलकत्ते भेजती थी कुछ कलपुर्जों के लेन-देन के लिए। एक रात मेरे पास रूक कर सुबह वो चले जाया करता था। उसके भी आगे-पीछे कोई नहीं था, ऐसा उसने बताया था। यूँ तो इस धंधे में कोई अपना-पराया नहीं होता, फिर भी उन एक-दो वर्षों में हम दोनों को कुछ जुड़ाव तो हो ही गया था एक दूसरे से। कहीं कोई मन का अनकहा अनुबंध सा मानने लगे थे हम। फिर एक दिन पुलिस का छापा पड़ा। उस रात वो मेरे पास ही था। हड़बड़ी में एक पोटली में पाई-पाई जोड़ी हुई अपने जीवन भर की कमाई और कुछ रुपए ठूँस कर मैं और नाथन वहाँ से भाग निकले। और कोई चारा नहीं था। रात गंगाजी के किनारे रेत पर बैठकर गुज़ारी। शायद पहली बार हम दोनों ने इतनी बातें की हों कभी। उस रात भविष्य की अनिश्चितता ने हमारे बीच के वस्तु और ग्राहक के भाव को कहीं वाष्पित कर दिया। पहली बार शरीर की जगह हृदय के वस्त्र उतरे। गंगाजी को साक्षी मानकर नाथन ने मुझे जीवन भर साथ निभाने का वचन दिया और अपने साथ यहाँ मद्रास ले आया। कुछ दिनों सब कुछ अच्छा चला, हम पति-पत्नी की तरह साथ रहे। किंतु जब प्याज़ के छिलके उतरते हैं तो आँखों में आँसू आ ही जाते है। नाथन के ऐब मुझसे छिपे नहीं थे और उसकी आय भी इतनी नहीं थी कि सारे ऐबों को पूरा करने के बाद एक परिवार का खर्च चल सके। अंततः एक विवाहिता हो पाने और माँ बनने की मेरी चाहत ने उसके अंदर मनुष्यता की खोल में बैठे पशु को उघाड़ दिया। कायरता मुसीबतों से बचने के लिए हमेशा ही निकृष्ट कर्मों का आलम्बन करती है, सत्कर्मों के लिए शौर्य की आवश्यकता होती है। एक दिन धोखे से वह मुझे यहाँ बेच कर ग़ायब हो गया।” इतना कह कर उन्होंने खिड़की बंद कर दी।

 

      जीवन की कोई भी कथा इतनी लम्बी नहीं होती कि उसे एक या दो अनुच्छेदों में बाँधा ना जा सके। जो सारांश समझ ले उसे ग्रंथ की आवश्यकता नहीं होती। बाक़ी सब तो केवल लेखक, श्रोता या पाठक की भावनाओं और मानसिकताओं का फैलाव भर है। जीवन की कोई भी परीक्षा इतनी कठिन नही लगी थी कभी। प्रश्नों के उत्तर मिल रहे थे या उत्तरों से प्रश्न उत्पन्न हो रहे थे, समझ नही पा रहा था। मेरे विचारों के दिशा-भ्रम को पहचान लिया था उन्होंने।


“अनचाही ममता का बोझ भी बहुत भारी होता है, मैं तुम्हारे असमंजस, धर्म-संकट और किमकर्तव्यविमूढ़ता को समझ सकती हूँ बाबू। यह दुर्भाग्य ही है हम दोनों का कि हम फिर मिले। किंतु नियति तो ईश्वर भी नही टाल सकते, हम तो मनुष्य हैं। इसे अपने यहाँ आने के पाप का दण्ड समझ कर भोग लीजिए। केवल एक आग्रह है आपसे, आशा करती हूँ मानेंगे…!”

“आप आदेश करिए!” अपनी आत्मग्लानि को कुछ कम कर सकूँ ऐसी आशा नज़र आयी थी मुझे। आत्मग्लानि किस बात की ज़्यादा थी यह निर्णय करना कठिन था – उन्होंने मुझे ऐसी जगह पाया इस बात की, या फिर इस बात की कि बचपन में अपनी अज्ञानतावश उन्हें कोई सुख नही दे सका, आख़िर माँगा ही क्या था उन्होंने, यही ना कि मैं कुछ देर उनकी गोद में बैठूँ और वो मुझे प्रेम कर सकें।

“मुझे वचन दीजिए कि आप फिर कभी इस घर की सीढ़ियाँ नही चढ़ेंगे! वचन दीजिए मुझे, इसे आग्रह समझें या आदेश।” इतना कहते-कहते उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथों में ले लिया था और एक सौ रुपए का नोट मेरी हथेली में दबा कर मेरे माथे को चूमते हुए बोलीं, “अब आप जाइए बाबू, आपका समय हो रहा है, मेस में खाना भी नही मिलेगा। मैं आप फ़ौजियों का रूटीन जानती हूँ। अपना ख़्याल रखना।” अंतिम कुछ शब्द उनके गले में ही फँस कर रह गए, भावातिरेक उनकी आँखें नम और गला अवरुद्ध हो चुके थे। मेरी आँखों में फिर वही कलकत्ते की शाम तैर गयी थी जब मैं बिदा हो रहा था वहाँ से, वो एक रुपए का नोट और उनका ममता भरा चुंबन।


जाने किन भावनाओं ने पैरों में बेड़ियाँ डाल दी थीं कि चाहकर भी मैं उनके गले से नही लिपट सका। आशीर्वाद तक नही ले सका। इतनी कायरता का अनुभव कभी नही किया था मैंने। एक बार फिर उनकी भावनाओं को आहत करते हुए चुपचाप उठकर चला आया था मैं। संतानें ऐसी ही निर्मम होती हैं शायद। भवानी सामने के पान-ठेले पर मेरा इंतज़ार करते हुए ना जाने कितनी सिगरेटें फूँक चुका था। मुझे देखते ही ढेर सारे प्रश्नों की झड़ी लगा दी उसने। मैंने उस समय कोई ज़वाब देना उचित नहीं समझा था। मेरे चेहरे को ध्यान से देखने के बाद उसने भी चुप रहना ही उचित समझा। हमने चुपचाप साइकिल उठाई और वापस आ गये। कुछ खाने की इच्छा नही रह गयी थी मेरी। भवानी मेस चला गया था। क्रोध हमेशा ही दिशाहीन होता है, कब किस बात का किस पर उतरे नही मालूम। बेबसी उसे और भी अनियंत्रित कर भटका देती है। मैं दुःखी था, क्रोधित था या बेबस था, समझ नही पा रहा था। मेस से वापस आकर भवानी मेरे पास बैठ गया था, बिना परिस्थिति को समझे वह मुझे छोड़कर जाना नही चाहता था।

“तू ठीक तो है?”

“हाँ, तू जा सो जा, कल बात करेंगे।”

मेरी दृढ़ता को महसूस कर वह चुपचाप चला गया था। पर मेरे ज़ेहन में वह शाम जैसे ठहर गयी हो। रात में कब नींद आई नही मालूम। भवानी शायद कई बार आकर वापस लौट गया था मुझे सोता देखकर। मेस जाना था नाश्ते के लिए। आज रविवार था, मेस देर से खुलता था और देर तक खुला रहता था। अंततः उसके जगाने पर नींद खुली। अलसाई आँखों से मैंने घड़ी देखी, साढ़े-आठ बज चुके थे, मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा था। हर रविवार की सुबह मैं छः से आठ बजे तक जिम में हुआ करता था, किंतु आज़…। पिछली शाम की घटनायें फिर जीवंत हो उठी मस्तिष्क में। घटनायें कितनी भी सुखद या विद्रूप क्यों न हों, वो जीवन-धारा को रोक नही सकतीं। ठहराव ही मृत्यु है, फिर वो चाहे साँसों का हो या समय का। और हमारी तो सारी ट्रेनिंग ही समय की कटिबद्धता को लेकर थी। मैं दस मिनट में तैयार होकर आ गया और हम मेस की ओर चल पड़े। नाश्ते की टेबल पर मैंने भवानी की आँखों में उमड़ते सारे प्रश्नों के उत्तर दे डाले। सब कुछ सुनने के बाद वह सिर झुकाए चित्रवत सा, ठगा सा बैठा रह गया, बिलकुल प्रतिक्रियाहीन, निःशब्द। संभवतः वो सारे शब्द जो कहे जा सकते थे, लुप्त हो चुके थे। हमने फिर कभी इस बारे में बात नही की, जीवन यंत्रवत सा चलता रहा था, कल शाम आए तूफ़ान के पहले तक।


                                          ——————


     मेरी तंद्रा फिर भंग हुई। हम शायद कावेरी के ऊपर से गुज़र रहे थे। दक्षिण की नदियों के बारे में मुझे ज़्यादा कुछ नही पता था, पर शायद कावेरी ही होगी। अथाह जलराशि की स्वामिनी, दो पाटों में बंधी हुई, शांत, सौम्य, पूर्ण निश्चिंतता से बहती हुई, अपने गंतव्य से पूर्णतया अवगत। सारी तीव्रता, सारी हलचल, सारा कोलाहल भीतर कहीं गहरे में दबाए हुए, ऊपर से किसी वैरागी के विशाल चित्त की तरह निर्मल, अविचल। अपनी निरंतरता में जीवन का सार समेटे हुए। इन नदियों के जल में मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा, सबको परिष्कृत करने की क्षमता है, ऐसा मैंने सुना था। किंतु सोचता हूँ क्या यथार्थ में यह परिष्करण जल द्वारा सम्भव है? कदाचित नही। जब तक मनुष्य अपने उद्वेलित हृदय की भूमि का, उस पर निरंतर जन्म लेते शूद्र विचारों और भावनाओं का परिष्करण स्वयं ना करे, उसकी मुक्ति सम्भव नही। हम मुक्त होने की लालसा में भौतिक अवशेषों की अंत्येष्टि और तर्पण तो कर देते हैं, किंतु क्या संसार के विभिन्न धर्मों में प्रचलित इन क्रियाओं के विभिन्न मापदण्ड मनुष्य की महीन लालसाओं का ही प्रक्षेपण नही हैं? यदि माया, मोह, वासना और लालसाओं की अंत्येष्टि और तर्पण ना हो सके तो क्या आत्मा को इस भौतिक जगत से बाँधने वाले सूत्र कभी कट सकेंगे?


      भावनाओं की विह्वलता में मेरा हाथ अनायास ही जेब में रखे पूर्णा के पत्र पर चला गया। उनके लिखे एक-एक शब्द मस्तिष्क में अंकित थे, विशेषतः अंतिम कुछ पंक्तियाँ। सोचने लगा कि जिस कहानी का प्रारम्भ माँ गंगा के पवित्र आँचल में हुआ था, उसका अंत भी उसी स्वर्गवासिनी माँ भागीरथी की गोद में होना उचित होगा। उनके द्वारा प्रदत्त इकलौती ज़िम्मेदारी को इस रूप में निभाने के मानसिक निश्चय से गहन संतोष का अनुभव हुआ, जैसे वर्षों की थकान का अंत हुआ हो। शाम गहरा कर रात्रि में परिवर्तित होने को थी। खुली खिड़की से आते ठंढी हवा के झोंकों को पहली बार महसूस कर सका। ट्रेन के हिचकोलों से एक सुखद अर्ध-मूर्च्छा में प्रवेश कर गया था मैं। हृदय के सारे अंतर्द्वंद्वों, मन-मस्तिष्क के सारे स्वचालित वार्तालापों का जैसे शमन हो गया हो। दिन में कुछ भी न खाने की वजह से अब भूख की तीव्रता का अहसास हुआ। थोड़ा कुछ खाकर मैं अपनी बर्थ पर जो लेटा तो नींद सुबह हैदराबाद में स्टेशन के कोलाहल से टूटी।


      हैदराबाद में ड्यूटी ज्वायन करने के लगभग एक महीने बाद मैं आज फिर माँ गंगा के उसी तट पर खड़ा था जिसके रेत, कीचड़ और जल में मैंने अनगिनत क्रीड़ाएँ की थी। जल में जैसे मेरा पूरा बचपन प्रतिबिम्बित होने लगा था। दादा, माई, छोटा भाई और मैं उसी जल में डुबकी लगाते, और कहीं नेपथ्य में पूर्णा का प्रतिबिम्ब। भावनाओं का अजीब सा सम्मिश्रण था वह। सामाजिक स्वीकृति, अस्वीकृति और आक्षेपों की सम्भावनाओं से सर्वथा परे, शारीरिक और सामाजिक सीमाओं का अतिक्रमण करती पूर्णतः निजी भावनाओं से आरोपित मूर्धन्य मूर्त अनुभव। हज़ारों मील का सफ़र तय कर आयी तीव्रगामिनी गंगा का गर्म जल शरीर में एक अजीब सी ऊर्जा प्रवाहित कर रहा था, शायद निरंतर बहते जाने की ऊर्जा; कहीं ठहर जाने, तनिक विश्राम कर लेने की लालसा को निषिद्ध करती ऊर्जा। सब कुछ बहता जा रहा था उस प्रवाह में, एक तिनके से लेकर दूर तैरते जलपोत तक, सब कुछ। जो किनारों पर उलझ गए थे, वो सड़ने लगे थे। जीवन को हम कितना तुच्छ बना देते हैं अपने विचारों की संकीर्णता से। सब कुछ स्वीकार कर लेने, समावेश कर लेने, आत्मसात् कर लेने की विशालता में ही जीवन का सार्थक प्रवाह परिलक्षित हो सकता है। अन्यथा सड़ने-गलने की प्रक्रिया तो सदैव ही चलती रहती है, उसे किसी आमंत्रण की आवश्यकता ही कहाँ।


      मैंने पूर्णा द्वारा दिए सौ रुपए के नोट से कुछ तर्पण की सामग्री ख़रीदी। पूर्णा ने शायद वह मुझे इसीलिए दिया होगा। लोटे में रखने के पूर्व मैंने उस पत्र को एक बार फिर पढ़ा।


      “बाबू, ये मेरा अंतहीन दुर्भाग्य ही है कि तुमसे जब भी मुलाक़ात हुई, इस नर्क में ही हुई। अपने इस दोषपूर्ण नारकीय जीवन पर मेरा तो कोई वश नहीं रहा कभी। निरंतर ठोकर खाते पत्थर ये कहाँ निश्चित कर पाते हैं कि वे कब और किसकी ठोकर से किस कूड़े, नाली या खाई में गिरेंगे? किंतु, जो वज्रपात तुम्हें यहाँ देखकर हुआ वह अकल्पनीय भी था और असहनीय भी। आत्मग्लानि की इस तीव्र पीड़ा का अंत मेरी मुक्ति के लिए अनिवार्य है, अतः मैं जा रही हूँ। नहीं जानती कि यह पत्र कभी तुम तक पहुँचेगा भी या नही, फिर भी एक अत्यंत क्षीण सी अधिकारविहीन टिमटिमाती हुई आशा है कि इतने वर्षों की मेरी इस ममत्व-साधना में यदि तनिक भी शक्ति होगी तो तुम्हारे हाथों द्वारा इस पत्र का किसी पवित्र नदी में विसर्जन सम्भव हो सकेगा। कदाचित वही मेरा तर्पण हो, मेरी अंत्येष्टि! आशीर्वाद।”


    एक पंडित द्वारा विधिवत मंत्रोच्चार के बाद मैंने उनके पत्र को माँ गंगा में विसर्जित कर दिया। लोटा तुरंत गंगा के तल में समाहित हो गया मानो वह पंचमहाभूतों से बना पूर्णा का भौतिक शरीर हो। किंतु पत्र उस पावन जलराशि पर कुछ देर तैरता रहा किसी उचित लहर के आलिंगन की प्रतीक्षा में जो उसे स्वयं में विलीन कर सके, जैसे शरीर छोड़ने के बाद आत्मा उचित गर्भ की प्रतीक्षा में कुछ समय अंतरिक्ष में विचरण करती हो। गंगा की तीव्र धारा में लहरों पर झूलते उस पत्र को मैं एकटक देखता रहा। अंततः, इस विश्वास के साथ कि पूर्णा की अंत्येष्टि, उनका तर्पण पूर्ण हुआ, मैं भारी मन से लौटने लगा था। किंतु हृदय में एक विचित्र से संतोष और मुक्ति का अनुभव किया मैंने, कहीं न कहीं मेरे आत्मग्लानि की भी अंत्येष्टि हुई थी आज।


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